Wednesday, December 11, 2024

सांस्कृतिक संघर्ष या संवैधानिक विजय? अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय मामला कुछ अज्ञात सत्यों को उजागर करता है!

 

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भारत में दो विश्वविद्यालय मॉडल हैंकेंद्रीय और अल्पसंख्यक। अनुच्छेद 30(1) भारत में अल्पसंख्यक विश्वविद्यालयों की स्थापना को सक्षम बनाता है। ये विश्वविद्यालय शिक्षा के साथ-साथ अपनी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने पर भी ध्यान केंद्रित करते हैं। वे सामुदायिक मूल्यों को प्रतिबिंबित करते हुए स्वतंत्र रूप से प्रवेशकर्मचारियों और आंतरिक नीतियों का प्रबंधन करते हैं। सीट आरक्षण संवैधानिक अधिकारों को बरकरार रखते हुए हाशिए पर रहने वाले समूहों की मदद करता है। 

लेकिन इस मॉडल को चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। आरक्षण प्रणाली से परिसर की विविधता कम हो सकती है। कम सरकारी फंडिंग के कारण संसाधन की कमी इन विश्वविद्यालयों को परेशान करती है। उनके बुनियादी ढांचे और अनुसंधान को नुकसान होता है। यह फोकस बौद्धिक विविधता में बाधा उत्पन्न कर सकता है।

दूसरी ओरकेंद्रीय विश्वविद्यालय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से संबद्ध हैं और राष्ट्रीय शिक्षा मानकों को बनाए रखते हैं। वे विविध छात्रों के साथ समावेशी शैक्षणिक वातावरण बनाते हैं। चूंकि केंद्रीय विश्वविद्यालय सरकार द्वारा वित्त पोषित हैंइसलिए उनके पास मजबूत बुनियादी ढांचाअनुसंधान अनुदान और सुविधाएं हैं। कठोर मानक और योग्यता-आधारित प्रवेश प्रतिष्ठा और निष्पक्षता को बढ़ाते हैं। इन विश्वविद्यालयों में अनुसंधान निधि नवाचार और वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देती है। केंद्रीय विश्वविद्यालयों को भी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। अत्यधिक विनियमन कार्यकुशलता में बाधा डालता है। राजनीतिक दबाव अकादमिक स्वतंत्रता को कमजोर करता है। एक समान नीतियां विविध सामुदायिक आवश्यकताओं की उपेक्षा कर सकती हैं।

दोनों विश्वविद्यालय भारत की शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं। उनके दृष्टिकोण देश की विविध शिक्षा प्रणाली को दर्शाते हैं। प्रणाली में राष्ट्रीय शिक्षा और सांस्कृतिक संरक्षण संतुलित हैं। सभी के लिए एक-आकार-फिट समाधान शिक्षा के लिए उपयुक्त नहीं हैं।

हालाँकिदो मॉडल प्रणाली ऐसे मुद्दे पैदा करती है जिन्हें समय-समय पर हल करने की आवश्यकता होती है। सबसे स्थायी मुद्दों में से एक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जिसे एएमयू के नाम से भी जाना जाता हैसे संबंधित है।

ऐतिहासिक संदर्भ

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक दर्जा विवाद इसके संस्थापक सिद्धांतों से उपजा है। 1875 में सर सैयद अहमद खान ने मदरसतुल उलूम मुसलमान--हिंद की स्थापना की। बाद मेंइस्लामी संस्कृति को संरक्षित करते हुए मुस्लिम शिक्षा को आधुनिक बनाने के लिए इसका नाम बदलकर मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज कर दिया गया। इसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन के तहत मुसलमानों और अन्य समुदायों के बीच शैक्षिक अंतर को पाटना था।

1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय या एएमयू में परिवर्तन को स्वतंत्र भारत की संसद के अग्रदूत इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल द्वारा बनाए गए अधिनियम द्वारा औपचारिक रूप दिया गया था। इसने भारत के मुस्लिम समुदाय की सेवा करने के लिए विश्वविद्यालय के विशिष्ट चरित्र और मिशन को सुदृढ़ किया। बाद में इसकी अल्पसंख्यक स्थिति पर बहस इसी विधायी आधार पर केंद्रित रही।

स्वतंत्रता के बाद का युग और प्रारंभिक चुनौतियाँ

1947 में भारत को आजादी मिलने के बाद एएमयू की स्थिति और अधिक जटिल हो गई। धर्मनिरपेक्ष ढांचे नेअल्पसंख्यक अधिकारों को बरकरार रखते हुएइस बात पर विवाद खड़ा कर दिया कि सरकार समर्थित संस्थान किस हद तक धार्मिक विशिष्टता को अपना सकते हैं। तनाव विशेष रूप से तीव्र हो गया क्योंकि एएमयू को केंद्र सरकार से वित्त पोषण मिला और वह एक केंद्रीय विश्वविद्यालय बन गया।

कानूनी यात्रा

अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ (1967) मामले मेंसुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकताक्योंकि इसकी स्थापना केंद्र सरकार के अधिनियम द्वारा की गई थीजो इसे केंद्रीय विश्वविद्यालय के रूप में वर्गीकृत करता है। इस फैसले ने एएमयू को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक संस्थानों के अधिकारों से वंचित कर दिया। इस निर्णय ने अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में एएमयू की पहचान को महत्वपूर्ण रूप से बदल दियाजिससे लंबी कानूनी और राजनीतिक लड़ाई शुरू हो गई।

अपने अल्पसंख्यक चरित्र को बहाल करने के लिएसंसद ने 1981 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम में संशोधन किया। इस संशोधन के संबंध में कानूनी लड़ाई लड़ी गईजिसके कारण 2006 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसे अस्वीकार कर दिया। अदालत के अनुसारसंशोधन सुप्रीम कोर्ट के 1967 के फैसले से बचने का एक प्रयास था।

2024 सुप्रीम कोर्ट का फैसलाएक नया कानूनी ढांचा

इससे पहले कि हम सुप्रीम कोर्ट के नवंबर 2024 के फैसले के निहितार्थों का विश्लेषण करेंयह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि तीन न्यायाधीशों का पैनल सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में एएमयू की स्थिति की समीक्षा करेगा। छोटी बेंच एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा स्पष्ट करेगी। यह अन्य विश्वविद्यालयों के लिए वित्त पोषण और प्रवेश को नया आकार दे सकता है। एएमयू का इतिहास मामले के राजनीतिक और सामाजिक पहलुओं पर गहरा प्रभाव डालता है। इसमें अल्पसंख्यक अधिकारोंधर्मनिरपेक्षता और समुदाय/राज्य संतुलन पर जटिल बहस शामिल है। न्यायिक निर्णयों के लिए सावधानीपूर्वक संवैधानिक विश्लेषण और कानून के निरंतर अनुप्रयोग की आवश्यकता होती है। समय की आवश्यकता के बावजूदन्यायालय का रेफरल संपूर्ण तर्क के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को उजागर करता है। यह एक संस्थागत मुद्दे से कहीं अधिक है। यह भारत के लोकतंत्र में अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए महत्वपूर्ण है। इस निर्णय का भारतीय शिक्षाअल्पसंख्यक अधिकारों और शासन पर प्रभाव महत्वपूर्ण होगा।

इतना कहने के बादआइए हम स्वीकार करें कि सुप्रीम कोर्ट की सात-न्यायाधीशों की पीठ के नवंबर 2024 के फैसले ने अल्पसंख्यक संस्थानों की कानूनी समझ को बदल दिया। न्यायालय के 4:3 निर्णय ने 1967 के फैसले को उलट दिया। इसने घोषणा की कि अल्पसंख्यक समूह की स्थापना "द्वाराऔर "के लिएके बीच तकनीकी अंतर अल्पसंख्यक स्थिति निर्धारित करने का एकमात्र मानदंड नहीं हो सकता है।

फैसले ने कई प्रमुख कानूनी सिद्धांत स्थापित किए। सबसे पहलेइसने इस बात पर जोर दिया कि किसी संस्था की ऐतिहासिक पहचान और उद्देश्य उसकी कानूनी स्थिति निर्धारित करने के लिए अभिन्न अंग हैं। दूसराइसने अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक अधिकारों की सुरक्षा को मजबूत कियाजिससे अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के लिए मजबूत कानूनी सुरक्षा सुनिश्चित की गई। अंत मेंन्यायालय ने स्पष्ट किया कि सरकारी धन प्राप्त करना किसी संस्था की अल्पसंख्यक स्थिति को कमजोर या अस्वीकार नहीं करता है।

आरक्षण नीति कार्यान्वयन

2024 के फैसले ने आरक्षण नीति पर एएमयू की स्वायत्तता को महत्वपूर्ण रूप से बदल दिया। विश्वविद्यालयजिसे ऐतिहासिक रूप से मुस्लिम छात्रों के लिए अपनी 50% सीटें आरक्षित करने की अनुमति थी, 1967 के फैसले से पहले भी एक अलग प्रवेश रूपरेखा थी। इस नीति ने समावेशी रहते हुए मुस्लिम शिक्षा को प्राथमिकता दी।

नया ढांचा एससी/एसटी/ओबीसी नीतियों को बरकरार रखते हुए श्रेणी-विशिष्ट आरक्षण वाले मुस्लिम छात्रों के लिए 50% कोटा लागू करता है। यह आंतरिक उम्मीदवारों और क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व पर भी विशेष ध्यान देता है।

संस्थागत शासन

एएमयू की अल्पसंख्यक स्थिति की बहाली अधिक स्वायत्तता प्रदान करके इसके शासन को बढ़ावा देती है। विश्वविद्यालय अब अल्पसंख्यक समुदायों की बेहतर सेवा के लिए शैक्षणिक कार्यक्रम तैयार कर सकता है। यह संकाय भर्ती और विशेष सांस्कृतिक और शैक्षिक पहलों के निर्माण में लचीलापन प्राप्त करता है। ऐतिहासिक रूप सेइस स्वतंत्रता के कारण इस्लामी अध्ययन में उन्नत अध्ययन केंद्र,पश्चिम एशियाई अध्ययन विभाग और इस्लामी अध्ययन संस्थान जैसे अद्वितीय विभागों की स्थापना हुई।

यह फैसला एएमयू के अकादमिक फोकस को भी मजबूत करता है। इस्लामिक अध्ययन मेंविश्वविद्यालय विभागों का विस्तार करेगा,इस्लामी न्यायशास्त्र और धर्मशास्त्र पर पाठ्यक्रम शुरू करेगा और समकालीन इस्लामी विचारों को आधुनिक विषयों से जोड़ेगा। भाषा और साहित्य मेंयह उर्दू कार्यक्रमों को बढ़ानेतुलनात्मक साहित्य अध्ययन शुरू करने और भारत-इस्लामिक सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने की योजना बना रहा है। कला संकाय के डीन ने विश्वास व्यक्त करते हुए कहा कि यह निर्णय एएमयू को आधुनिक शैक्षिक उत्कृष्टता प्राप्त करते हुए अपनी शैक्षणिक पहचान को मजबूत करने की अनुमति देता है।

अनुसंधान एवं विकास पहल

फैसले के बादएएमयू ने वैश्विक सहयोग और अकादमिक नवाचार को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कई नई शोध पहलों का अनावरण किया है। इनमें मिस्र में अल-अजहर विश्वविद्यालय के साथ साझेदारीमलेशिया और इंडोनेशिया में इस्लामी विश्वविद्यालयों के साथ संयुक्त अनुसंधान परियोजनाएं और मध्य पूर्व में संस्थानों के साथ विनिमय कार्यक्रम शामिल हैं। विश्वविद्यालय अपने शैक्षणिक और सांस्कृतिक योगदान को आगे बढ़ाने के लिए विशेष अनुसंधान केंद्रजैसे अल्पसंख्यक अध्ययन केंद्रइस्लामिक अर्थशास्त्र के लिए उन्नत अनुसंधान केंद्र और इंडो-इस्लामिक मेडिकल स्टडीज संस्थान स्थापित करने की योजना बना रहा है।

राजनीतिक निहितार्थ

एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने विभिन्न राजनीतिक प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया है। कांग्रेस पार्टी ने शैक्षिक उत्कृष्टता को बढ़ावा देते हुए अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा के संवैधानिक दृष्टिकोण के साथ इसके संरेखण पर जोर देते हुए निर्णय का स्वागत किया। इसके विपरीतभाजपा को एक जटिल राजनीतिक संतुलन का सामना करना पड़ रहा है। ऐतिहासिक रूप सेतुष्टिकरण के रूप में अल्पसंख्यक-विशिष्ट उपायों की आलोचना करने वाली पार्टी को अब संविधान की न्यायालय की व्याख्या के साथ अपने रुख में सामंजस्य बिठाना चाहिए। यह तनाव उत्तर प्रदेश में स्पष्ट हैजहां भाजपा सरकार पसमांदा मुसलमानों को लक्षित करने के प्रयासों के साथ-साथ समान नागरिक संहिता जैसी पहल भी कर रही है।

उत्तर प्रदेश में यह फैसला विशेष क्षेत्रीय महत्व रखता है। चूंकि राज्य की आबादी में लगभग 19% मुस्लिम शामिल हैंइसलिए यह फैसला मतदाताओं की भावनाओं को आकार दे सकता हैखासकर आगामी स्थानीय निकाय चुनावों में। यह राजनीतिक गठबंधनों को भी प्रभावित कर सकता हैखासकर पश्चिमी यूपी मेंक्योंकि पार्टियां अल्पसंख्यक मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए रणनीतियों का पुनर्मूल्यांकन कर रही हैं।

फैसले का दीर्घकालिक राजनीतिक प्रभाव एएमयू से परे तक फैला हुआ है। 1967 के अज़ीज़ बाशा फैसले को पलटकरसत्तारूढ़ अनुच्छेद 30 की व्याख्या को फिर से परिभाषित करता हैयह स्पष्ट करता है कि सरकारी फंडिंग किसी संस्था की अल्पसंख्यक स्थिति को नकारती नहीं है। यह निर्णय 340 से अधिक अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को प्रभावित करने वाली एक महत्वपूर्ण कानूनी मिसाल कायम करता हैजिसमें सेंट स्टीफंस कॉलेज और जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे प्रमुख संस्थान शामिल हैं। विशेषज्ञों का सुझाव है कि यह अन्य लंबित कानूनी विवादों को प्रभावित कर सकता हैजैसे जामिया की अल्पसंख्यक स्थिति और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान अधिनियम आयोग को संवैधानिक चुनौती।

इस फैसले का शिक्षा नीति पर प्रभाव पड़ता है। सरकारी निगरानी के साथ संस्थागत स्वायत्तता को संतुलित करने पर इसका जोर यूजीसी अधिनियम में संशोधन और राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने को आकार दे सकता है। इस प्रकार यह ऐतिहासिक निर्णय न केवल एएमयू को प्रभावित करता है बल्कि भारत में अल्पसंख्यक शिक्षा के लिए एक व्यापक ढांचा भी स्थापित करता है।

शैक्षिक नीति विकास

एएमयू के फैसले का भारत की शिक्षा प्रणाली को कैसे आकार दिया जाएइस पर मजबूत प्रभाव पड़ता हैजिसमें एनईपी 2020 का कार्यान्वयन विशेष रूप से प्रभावित होता है। एएमयू के पूर्व कुलपति और शिक्षा नीति विशेषज्ञ डॉफुरकान कमर का कहना है कि फैसले में एनईपी के मानकीकरण लक्ष्यों के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे अल्पसंख्यक संस्थानों के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करते हैं। यूजीसी के अध्यक्ष एमजगदेश कुमार ने कहा है कि संस्थागत स्वतंत्रता और शैक्षणिक उत्कृष्टता के बीच संतुलन सुनिश्चित करने के लिए यूजीसी को अपने फंडिंग दिशानिर्देशों में सुधार करने की जरूरत है। 2030 तक एनईपी को लागू करने में अल्पसंख्यक अधिकारों और शैक्षिक सुधारों की परस्पर विरोधी जरूरतों के कारण नई बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है।

एएमयू के लिए कार्यान्वयन चुनौतियां

व्यापक प्रशासनिक ढांचे की आवश्यकता के कारण एएमयू को अपने संस्थागत सुधार प्रयासों में महत्वपूर्ण बाधाओं का सामना करना पड़ता है। राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद के भारतीय विश्वविद्यालयों के हालिया आकलन से पता चलता है कि लगभग 60% को विविधता लक्ष्यों के साथ मानकीकृत प्रवेश को संरेखित करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। पारदर्शी भर्ती नीतियां 2023यूजीसी दिशानिर्देशों द्वारा अनिवार्य हैं। एएमयू में निगरानी प्रणालियों के कार्यान्वयन के लिए महत्वपूर्ण संसाधनों की आवश्यकता होती है। गुणवत्ता आश्वासन सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त बजटीय आवंटन की आवश्यकता है। संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में इसकी विशिष्ट स्थिति के कारण एएमयू के लिए नियामक अनुपालन के साथ संस्थागत स्वायत्तता को संतुलित करना और भी कठिन हो जाता है।

एएमयू की वित्तीय प्रबंधन चुनौतियाँ

आज के बदलते शिक्षा परिदृश्य में एएमयू की वित्तीय चुनौतियाँ अधिक जटिल हो गई हैं। चूंकि विश्वविद्यालय को यूजीसी द्वारा वित्त पोषित किया जाता हैइसलिए इसे स्वायत्ततानियामक अनुपालन और पारदर्शिता को संतुलित करना होगा। एएमयू अब उद्योग सहयोगपूर्व छात्र दान और परामर्श सेवाओं पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभागजैव प्रौद्योगिकी विभाग और वैश्विक भागीदारों से बड़े अनुसंधान अनुदान का प्रबंधन करने के लिए उन्नत प्रणालियों की आवश्यकता होती है। स्व-वित्तपोषित पाठ्यक्रमों के लिए अतिरिक्त धन जुटाने की आवश्यकता है। यूजीसी ने नए दिशानिर्देशों के तहत एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा और शैक्षणिक उत्कृष्टता बनाए रखने में मदद करने का वादा किया है।

भविष्य की विकास रणनीति

फैसले के बाद एएमयू ने अपनी पहचान बरकरार रखते हुए संस्थान को बढ़ाने की योजना बनाई है। इसने AI और नवीकरणीय ऊर्जा के लिए उन्नत प्रयोगशालाएँ बनाने के लिए धन आवंटित किया है। संकाय विकास में ऑक्सफोर्ड और एमआईटी जैसे शीर्ष संस्थानों के साथ सहयोग के साथ-साथ 22 देशों के 42 विश्वविद्यालयों के साथ साझेदारी शामिल है। इसकी "ब्रिज ऑफ अंडरस्टैंडिंगश्रृंखला अंतर-सामुदायिक संवाद और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देती है। नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क में एएमयू की मजबूत रैंकिंग है। "एएमयू रीच आउटकार्यक्रमजो हाशिए पर रहने वाले छात्रों का समर्थन करता हैका और विस्तार किया जाएगा।

निष्कर्ष

एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे पर 2024 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला भारत के शैक्षिक और संवैधानिक इतिहास में एक मील का पत्थर है। यह लंबे समय से चले आ रहे विवाद का समाधान करता है और शिक्षा में अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए एक रूपरेखा स्थापित करता है। फैसले का प्रभाव एएमयू से परेभारत में अल्पसंख्यक अधिकारोंशैक्षिक नीतियों और सामाजिक एकता को प्रभावित करता है।

एएमयू का भविष्य एक अग्रणी संस्थान के रूप में अपनी भूमिका के साथ अपनी अल्पसंख्यक पहचान को संतुलित करने पर निर्भर करता है। फैसले पर राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रियाएँ आने वाले वर्षों में अल्पसंख्यक अधिकारों और शैक्षिक स्वायत्तता पर चर्चा को आकार देंगी। विशिष्ट मुद्दों को छोटी पीठ को सौंपने से पता चलता है कि कुछ पहलू अनसुलझे हैं। एएमयू की अल्पसंख्यक स्थिति को मान्यता देना इसके विकास के लिए एक मजबूत आधार तैयार करता है और भारत में इसी तरह के मामलों के लिए प्रमुख मिसाल कायम करता है।

Cultural Clash or Constitutional Triumph? The Aligarh Muslim University Case Highlights Certain Unknown Truths!

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India has two university models: Central and Minority. Article 30(1) enables the establishment of minority universities in India. These universities focus on preserving their cultural heritage alongside academics. They independently manage admissions, staff, and internal policies, reflecting community values. Seat reservations help marginalised groups while upholding constitutional rights. 

But this model faces challenges. The reservation system may reduce campus diversity. Resource constraints plague these universities because they need more government funding. Their infrastructure and research suffer, and this focus could hinder intellectual diversity.

On the other hand, central universities are affiliated with the University Grants Commission and maintain national education standards. They create inclusive academic environments with diverse students. Since central universities are government-funded, they have robust infrastructure, research grants, and facilities. Rigorous standards and merit-based admissions enhance reputation and fairness. Research funding at these universities fuels innovation and global collaboration. Central universities also face challenges. Excessive regulation hinders efficiency. Political pressure undermines academic freedom. Uniform policies may need to pay more attention to diverse community needs.

Both universities are vital to India’s education. Their approaches reflect the country’s diverse education system. National education and cultural preservation are balanced in the system. One-size-fits-all solutions are not suitable for education.

However, the two-model system does create issues that need to be sorted out from time to time. One of the most enduring issues has been regarding the Aligarh Muslim University also known as AMU.

Historical Context

Aligarh Muslim University’s minority status dispute stems from its founding principles. In 1875, Sir Syed Ahmad Khan established the Madrasatul Uloom Musalmanan-e-Hind. Later, it was renamed Muhammadan Anglo-Oriental College, to modernise Muslim education while preserving Islamic culture. This aimed to bridge the educational gap between Muslims and other communities under British rule.

The transition to Aligarh Muslim University or AMU in 1920 was formalised by the Act legislated by the Imperial Legislative Council – the forerunner of free India’s parliament. It reinforced the University’s distinct character and mission to serve India’s Muslim community. Later debates on its minority status centred on this legislative foundation.

The Post-Independence Era and Early Challenges

AMU’s situation grew more complicated after India achieved independence in 1947. The secular framework, while upholding minority rights, sparked controversy over how far government-supported institutions could embrace religious distinctiveness. The tension grew especially intense as AMU got funding from the central government and became a central university.

The Legal Journey

in the Azeez Basha vs. Union of India (1967) case, the Supreme Court ruled that AMU could not be considered a minority institution, as it was established by a Central Government Act, categorising it as a central university. This ruling denied AMU the rights of minority institutions under Article 30 of the Indian Constitution. This decision significantly altered AMU’s identity as a minority institution, triggering extended legal and political battles.

To restore its minority character, the Parliament amended the Aligarh Muslim University Act in 1981. Legal battles followed regarding this amendment, leading to its ultimate rejection by the Allahabad High Court in 2006. According to the court, the amendment was an attempt to avoid the Supreme Court’s 1967 ruling.

The 2024 Supreme Court Verdict: A New Legal Framework

Before we analyse the implications of the Supreme Court’s November 2024 verdict, it is important to mention that a three-judge panel will review AMU’s status in light of the Supreme Court’s ruling. The smaller bench will clarify AMU’s minority status. This could reshape funding and admissions for other universities. AMU’s history deeply impacts the case’s political and social aspects. It involves complex debates on minority rights, secularism, and community/state balance. Judicial decisions require careful constitutional analysis and consistent application of law. The Court’s referral highlights its commitment to thorough reasoning, despite the time needed. This is more than an institutional issue. This is critical to India’s minority rights in its democracy. The decision’s impact on Indian education, minority rights, and governance will be significant.

Having said that, let us acknowledge that the November 2024 verdict by the Supreme Court’s seven-judge bench altered the legal understanding of minority institutions. The Court’s 4:3 decision reversed the 1967 ruling. It declared that the technical difference between establishment “by” and “for” a minority group cannot be the only criterion for determining minority status.

The ruling established several key legal principles. First, it emphasised that an institution’s historical identity and purpose are integral to determining its legal standing. Second, it reinforced the protection of minority rights under Article 30, ensuring robust legal safeguards for minority educational institutions. Last, the Court clarified that receiving government funding does not undermine or negate an institution’s minority status.

Reservation Policy Implementation

The 2024 verdict significantly altered AMU’s autonomy over its reservation policy. The university, historically allowed to reserve up to 50% of its seats for Muslim students, had a distinct admission framework even before the 1967 ruling. This policy gave precedence to Muslim education while remaining inclusive.

The new framework implements a 50% quota for Muslim students with category-specific reservations while retaining SC/ST/OBC policies. It also gives special consideration to internal candidates and regional representation. 

Institutional Governance

The restoration of AMU’s minority status boosts its governance by granting greater autonomy. The university can now tailor academic programs to better serve minority communities. It gains flexibility in faculty recruitment and the creation of specialised cultural and educational initiatives. Historically, this independence led to the establishment of unique departments like the Centre for Advanced Studies in Islamic Studies, the Department of West Asian Studies, and the Institute of Islamic Studies.

The verdict also strengthens AMU’s academic focus. In Islamic Studies, the university will expand departments, introduce courses on Islamic jurisprudence and theology, and link contemporary Islamic thought with modern disciplines. In language and literature, it plans to enhance Urdu programs, launch comparative literature studies, and preserve Indo-Islamic cultural heritage. The Dean of the Faculty of Arts expressed confidence, saying the decision allows AMU to fortify its academic identity while achieving modern educational excellence.

Research and Development Initiatives

Following the verdict, AMU has unveiled several new research initiatives aimed at fostering global collaboration and academic innovation. These include partnerships with Al-Azhar University in Egypt, joint research projects with Islamic universities in Malaysia and Indonesia, and exchange programs with institutions in the Middle East. The University plans to establish specialised research centres, such as the Center for Minority Studies, the Advanced Research Center for Islamic Economics, and the Institute for Indo-Islamic Medical Studies, to further its academic and cultural contributions.

Political Implications

The Supreme Court verdict on AMU’s minority status has sparked diverse political reactions. The Congress Party welcomed the decision, emphasising its alignment with the constitutional vision of protecting minority rights while fostering educational excellence. In contrast, the BJP faces a complex political balancing act. Historically, critical of minority-specific measures as appeasement, the party must now reconcile its stance with the Court’s interpretation of the constitution. This tension is evident in Uttar Pradesh, where the BJP government pursues initiatives like the Uniform Civil Code alongside outreach efforts targeting Pasmanda Muslims.

In Uttar Pradesh, the verdict holds particular regional significance. With Muslims comprising around 19% of the state’s population, the ruling could shape voter sentiment, especially in upcoming local body elections. It may also influence political alliances, particularly in western UP, as parties reassess strategies to appeal to minority voters.

The verdict’s long-term political impact extends beyond AMU. By overturning the 1967 Azeez Basha judgment, the ruling redefines the interpretation of Article 30, clarifying that government funding does not negate an institution’s minority status. This decision sets a crucial legal precedent affecting over 340 minority educational institutions, including prominent ones like St. Stephen’s College and Jamia Millia Islamia. Experts suggest it could influence other pending legal disputes, such as Jamia’s minority status and the constitutional challenge to the National Commission for Minority Educational Institutions Act.

The ruling has implications for education policy. Its emphasis on balancing institutional autonomy with government oversight may shape amendments to the UGC Act and implementation of the National Education Policy. This landmark decision thus not only affects AMU but also sets a broader framework for minority education in India.

Educational Policy Development

The AMU verdict has strong implications for how India’s education system is shaped, with NEP 2020 implementation being especially affected. Dr Furqan Qamar, a former AMU Vice-Chancellor and education policy expert, says the ruling requires a re-evaluation of NEP’s standardisation goals to ensure they don’t infringe on minority institutions’ constitutional rights. UGC chairperson M. Jagadesh Kumar has stated that the UGC needs to revamp its funding guidelines to ensure a balance between institutional freedom and academic excellence. Implementing the NEP by 2030 faces new hurdles because of the conflicting needs of minority rights and educational reforms.

Implementation Challenges for AMU

AMU faces significant obstacles in its institutional reform efforts because of the need for comprehensive administrative frameworks. The National Assessment and Accreditation Council’s recent assessments of Indian universities reveal that nearly 60% face challenges in aligning standardised admissions with diversity goals. Transparent recruitment policies are mandated by the 2023 UGC guidelines. Implementation of monitoring systems at AMU demands significant resources. Sufficient budgetary allocations are needed to ensure quality assurance. Balancing institutional autonomy with regulatory compliance becomes even more difficult for AMU because of its unique status as a minority institution under Article 30(1) of the Constitution.

AMU’s Financial Management Challenges

AMU’s financial challenges have become more complex in today’s evolving education landscape. Since the University is funded by the UGC, it must balance autonomy, regulatory compliance, and transparency. AMU is now focusing on industry collaborations, alumni donations, and consulting services. Managing large research grants from the Department of Science and Technology, Department of Biotechnology, and global partners, requires advanced systems. Self-financing courses need to generate additional funds. The UGC has pledged to help AMU maintain its minority status and academic excellence under the new guidelines.

Future Development Strategy

After the verdict, AMU plans to enhance the institution while preserving its identity. It has allocated funds to build advanced labs for AI and renewable energy. Faculty development includes collaborations with top institutions like Oxford and MIT, along with partnerships with 42 universities across 22 countries. Its “Bridge of Understanding” series promotes inter-community dialogue and cultural exchange. AMU has strong rankings in the National Institutional Ranking Framework. The “AMU Reach Out” program, which supports marginalised students, will expand further.

Conclusion

The 2024 Supreme Court verdict on AMU’s minority status marks a landmark in India’s educational and constitutional history. It resolves a long-standing dispute and establishes a framework for educational minority rights. The verdict’s impact extends beyond AMU, influencing minority rights, educational policies, and social unity in India.

AMU’s future depends on balancing its minority identity with its role as a leading institution. Political and social responses to the verdict will shape discussions on minority rights and educational autonomy in the years ahead. The referral of specific issues to a smaller bench shows that some aspects remain unresolved. Recognising AMU’s minority status lays a strong foundation for its growth and sets key precedents for similar cases in India.

Tuesday, December 3, 2024

The Great Khalistan Circus: A Tragicomic Ballet of Snakes, Stupidity & Absurdity

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India is a nation of diverse cultures and conflicting narratives. It often finds itself at the intersection of tragedy and farce. Nowhere is this more clear than in the convoluted saga of the Khalistan movement. It has become a tragicomic geopolitical soap opera where intelligence agencies, foreign governments, and misinformed diasporas play their parts with an enthusiasm matched only by their ineptitude. Imagine Kafka collaborating with Monty Python to create a series of diplomatic blunders, and you have the blueprint for this tragedy-cum-comedy. As you know Monty Python aka the Pythons gained fame for their sketch comedy series, Flying Circuswhich was aired on the BBC from 1969 to 1974. 

It is a story where international players behave like children with crayons, redrawing borders with no regard for human suffering. Diplomacy becomes a charade, with self-serving actors orchestrating chaos, conveniently ignoring the cost in lives and livelihoods.

How History Found Its Punchline

To understand Khalistan, one must revisit Punjab, a land of golden harvests, robust culture, and indomitable spirit. Before partition, the idea of carving out a separate Sikh state was as alien to the region as veganism is to a Punjabi wedding menu. 

But then came 1947, a year marked by hurried bureaucratic ineptitude masquerading as governance. Britain, leaving India as chaotically as it had ruled, divided the subcontinent with the precision of a drunk cartographer. Punjab, along with Bengal, endured this hasty partition, plunging millions into violence, displacement, and trauma.

Through this ordeal, the Sikh community displayed remarkable fortitude, rebuilding lives and integrating into the new India. Sikhs, a minority in India but integral to its identity, were respected for their resilience and patriotism. However, seeds of mistrust were sown by foreign powers, especially our neighbour Pakistan. Things worsened when successive governments failed to identify and nip the trouble when it was still nascent. 

The Puppet Masters Enter the Scene

Enter the Cold War era, when global powers saw regions not as homes to billions but as squares on a geopolitical chessboard. For the CIA, India’s friendship with the Soviet Union was an eyesore. What better way to destabilize a burgeoning democracy than by exploiting its internal divisions? If China was causing trouble in India’s Northeastern region, Pakistan and USA concentrated on the Northwestern parts, especially Punjab and Kashmir.

Pakistan’s Inter-Services Intelligence (ISI), licking its wounds from the 1971 debacle, played “vengeance politics.” So, if you can’t win a war, win the chaos. Armed with resources and propaganda, the ISI began nurturing the Khalistan dream, a Frankenstein’s monster they hoped would terrorize India but not overstep its boundaries.

Diaspora and Delusions

The Khalistan movement gained traction abroad, especially in Canada, the UK, and the US, where a vocal section of the Sikh diaspora found a new sense of identity in old grievances. Unlike in India, where the Sikh community largely rejected separatism, abroad, the movement became a rallying cry for a minority within the diaspora.

Justin Trudeau, Canada’s poster boy of multiculturalism, desperately juggled votes and values to retain power. Faced with a significant Sikh electorate, his government oscillated between tacit support for Khalistani groups and public denial of their existence. It was political opportunism dressed as cultural sensitivity, a spectacle that left both India and rational observers rolling their eyes.

The Domestic Powder Keg

Back home, the Indian government’s mishandling of the Punjab crisis turned discontent into defiance. Operation Blue Star, a military assault on the Golden Temple to flush out militants, remains one of India’s most controversial episodes. While the operation achieved its immediate goal, its fallout was catastrophic.

The storming of Sikhism’s holiest shrine fuelled widespread anger and alienation. This was compounded by the 1984 anti-Sikh riots, a pogrom that followed Indira Gandhi’s assassination. The state’s failure to prevent the massacre—and its perpetrators’ impunity—deepened wounds that have yet to heal fully.

Social Media and Meme-ification

In the digital age, revolutions no longer rely on pamphlets and underground meetings. They thrive on hashtags, viral videos, and echo chambers. The Khalistan movement adapted quickly, using social media to amplify its narrative. With strategic use of misinformation and emotive content, separatist groups influenced impressionable minds, far removed from the realities of Punjab.

For a generation raised on Instagram reels, complex histories were reduced to oversimplified binaries. “Free Khalistan” became a slogan as detached from the ground reality as it was from the aspirations of most Sikhs in India.

The Reality Behind the Ridicule

The Khalistan issue is laced with absurdities. Imagine, India’s most prosperous and influential community complaining about persecution and marginalisation! What makes the Khalistan demand absurd is that it came when the Sikh community was right at the top of India’s economic, political and social pyramid. However, traitors and opportunists created a fertile ground for manipulating public and global perceptions. The movement is about quixotic dreams that conjure up unrealistic maps driven by dollops of supremacist opiates.

Successive governments in India often treated these developments as inconveniences rather than opportunities for meaningful dialogue. This negligence allowed external forces to exploit the growing internal discontent.

The Global Diplomatic Circus

The international response to the Khalistan issue has been a masterclass in hypocrisy. Western nations, while professing support for India’s sovereignty, have allowed Khalistani groups to operate freely on their soil. Their justification? Freedom of speech. Conveniently forgetting the Basque, Quebec, Kurdistan and similar other movements.

While the West condemns extremism in its own backyard, it turns a blind eye to its export. Hillary Clinton’s famous analogy of “snakes in the backyard” rings true—Western tolerance for extremist rhetoric abroad often comes back to haunt them. The 9/11 tragedy, for instance. Not to mention rising ethnic violence in Germany and France. And they ignore the rising Khalistani activism in Canada, USA and Britain at their own peril.

A Farce That Demands Resolution

As the Khalistan circus plays on, one thing is clear: the status quo benefits no one. For India, ignoring Sikh grievances risks alienating a community that has contributed immeasurably to the nation’s fabric. For the diaspora, clinging to a romanticized notion of Khalistan only deepens divisions and distances them from the realities of contemporary Punjab. Their grievances pale in comparison to those of the Palestinians, Catalonians, Basque separatists, Kurds and many more. 

A Call for Clarity Amid Chaos

Perhaps the time has come for all stakeholders to move beyond rhetoric. India must acknowledge and address the socio-economic issues that fuel discontent in Punjab. Diaspora communities must engage with their homeland constructively, rather than through the lens of outdated ideologies gifted to them by the scheming foreign agencies out to create trouble for India. Guys like Gurpatwant Singh Pannu, Talwinder Singh Parmar, Hardeep Singh Nijjar etc are expendables in the deadly cloak-and-dagger games orchestrated by the ISI and its patrons in the West. The example of Jagjit Singh Chauhan is there for all to see. He had to return to India and apologise for his stupidities.

The global community must stop using the Khalistan issue as a pawn in its geopolitical games. Genuine progress lies not in stoking fires but in quelling them, not in erecting new borders but in bridging divides.

Khalistani protagonists should understand that they are mere puppets on the international stage. Their puppeteers will use them to win the global geopolitical drama. When the show ends, the puppets will be tossed into the nearest trash-bin. The great Khalistan show may serve the short-term ambitions of a few. Many may treat such geopolitical moves as an entertaining theatre of the absurd, but real lives are not props. 




खालिस्तान: सांपों, मूर्खता और बेहूदगी का एक दुखद बैले

 

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भारत विविध संस्कृतियों और परस्पर विरोधी आख्यानों का देश है। यह अक्सर ख़ुद को त्रासदी और प्रहसन के चौराहे पर पाता है। यह खालिस्तान आंदोलन की जटिल गाथा से अधिक स्पष्ट कहीं नहीं है। यह एक दुखद भू-राजनीतिक सोप ओपेरा बन गया है जहां खुफिया एजेंसियांविदेशी सरकारें और गलत सूचना देने वाले प्रवासी अपनी अयोग्यता के अनुरूप उत्साह के साथ अपनी भूमिका निभाते हैं। कल्पना कीजिए कि काफ्का मोंटी पाइथॉन के साथ मिलकर कूटनीतिक भूलों की एक श्रृंखला बना रहा हैऔर आपके पास इस त्रासदी-सह-कॉमेडी का खाका है। जैसा कि आप जानते हैं मोंटी पाइथॉन उर्फ ​​पाइथन्स को उनकी स्केच कॉमेडी श्रृंखलाफ्लाइंग सर्कस के लिए प्रसिद्धि मिलीजो 1969 से 1974 तक बीबीसी पर प्रसारित हुई थी।

यह एक ऐसी कहानी है जहां अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी मानवीय पीड़ा की परवाह किए बिना सीमाओं को दोबारा बनाते हुए क्रेयॉन वाले बच्चों की तरह व्यवहार करते हैं। कूटनीति एक दिखावा बन जाती हैजिसमें स्व-सेवारत अभिनेता अराजकता फैलाते हैंआसानी से जीवन और आजीविका में होने वाली लागत को नजरअंदाज कर देते हैं।

इतिहास को अपनी पंचलाइन कैसे मिली?

खालिस्तान को समझने के लिएकिसी को पंजाबसुनहरी फसलमजबूत संस्कृति और अदम्य भावना की भूमि पर फिर से जाना होगा। विभाजन से पहलेएक अलग सिख राज्य बनाने का विचार इस क्षेत्र के लिए उतना ही अलग था जितना कि पंजाबी शादी के मेनू में शाकाहार। 

लेकिन फिर 1947 आयायह साल शासन की आड़ में जल्दबाजी में नौकरशाही की अयोग्यता का था। ब्रिटेन ने भारत को वैसे ही अराजक ढंग से छोड़ दिया जैसे उसने शासन किया थाएक नशे में धुत मानचित्रकार की सटीकता के साथ उपमहाद्वीप को विभाजित कर दिया। पंजाब नेबंगाल के साथइस जल्दबाजी वाले विभाजन को सहन कियाजिससे लाखों लोग हिंसाविस्थापन और आघात में डूब गए।

इस कठिन परीक्षा के माध्यम सेसिख समुदाय ने उल्लेखनीय धैर्य का प्रदर्शन कियाजीवन का पुनर्निर्माण किया और नए भारत में एकीकृत हुआ। सिखभारत में अल्पसंख्यक हैं लेकिन इसकी पहचान का अभिन्न अंग हैंउनके लचीलेपन और देशभक्ति के लिए उनका सम्मान किया जाता था। हालाँकिअविश्वास के बीज विदेशी शक्तियोंविशेषकर हमारे पड़ोसी पाकिस्तान द्वारा बोए गए थे। हालात तब और ख़राब हो गए जब एक के बाद एक सरकारें समस्या की पहचान करने और उसे ख़त्म करने में विफल रहींजबकि यह समस्या अभी भी प्रारंभिक अवस्था में थी।

कठपुतली मास्टर्स दृश्य में प्रवेश करते हैं

शीत युद्ध के युग में प्रवेश करेंएक ऐसा समय जब वैश्विक शक्तियां क्षेत्रों को अरबों लोगों के घरों के रूप में नहीं बल्कि भू-राजनीतिक शतरंज की बिसात पर वर्गों के रूप में देखती थीं। सीआईए के लिएसोवियत संघ के साथ भारत की दोस्ती एक आंख की किरकिरी थी। एक उभरते लोकतंत्र को उसके आंतरिक विभाजनों का फायदा उठाकर अस्थिर करने का इससे बेहतर तरीका क्या हो सकता हैयदि चीन भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में परेशानी पैदा कर रहा थातो पाकिस्तान और अमेरिका ने उत्तर-पश्चिमी भागोंविशेषकर पंजाब और कश्मीर पर ध्यान केंद्रित किया।

पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआईने 1971 की पराजय के घावों को चाटते हुए, "प्रतिशोध की राजनीतिखेली। इसलिएयदि आप युद्ध नहीं जीत सकतेतो अराजकता जीतें। संसाधनों और प्रचार से लैसआईएसआई ने खालिस्तान के सपने को संजोना शुरू कर दियाएक फ्रेंकस्टीन का राक्षस जिसकी उन्हें उम्मीद थी कि वह भारत को आतंकित करेगा लेकिन अपनी सीमाओं को पार नहीं करेगा।

प्रवासी और भ्रम

खालिस्तान आंदोलन ने विदेशों मेंविशेष रूप से कनाडाब्रिटेन और अमेरिका में लोकप्रियता हासिल कीजहां सिख प्रवासी के एक मुखर वर्ग को पुरानी शिकायतों में पहचान की एक नई भावना मिली। भारत के विपरीतजहां सिख समुदाय ने बड़े पैमाने पर अलगाववाद को खारिज कर दियाविदेशों में यह आंदोलन प्रवासी भारतीयों के भीतर अल्पसंख्यकों के लिए एक रैली बन गया।

कनाडा के बहुसंस्कृतिवाद के पोस्टर ब्वॉय जस्टिन ट्रूडो ने सत्ता बरकरार रखने के लिए वोटों और मूल्यों के बीच जमकर खिलवाड़ किया। एक महत्वपूर्ण सिख मतदाता वर्ग का सामना करते हुएउनकी सरकार खालिस्तानी समूहों के लिए मौन समर्थन और उनके अस्तित्व को सार्वजनिक रूप से नकारने के बीच झूलती रही। यह सांस्कृतिक संवेदनशीलता का मुखौटा पहने राजनीतिक अवसरवाद थाएक ऐसा तमाशा जिसने भारत और तर्कसंगत पर्यवेक्षकों दोनों को अपनी आँखें घुमाने पर मजबूर कर दिया।

घरेलू बारूद का ढेर

घरेलू स्तर परपंजाब संकट से निपटने में भारत सरकार की लापरवाही ने असंतोष को अवज्ञा में बदल दिया। ऑपरेशन ब्लू स्टार,उग्रवादियों को खदेड़ने के लिए स्वर्ण मंदिर पर सैन्य हमलाभारत के सबसे विवादास्पद प्रकरणों में से एक है। हालांकि इस ऑपरेशन ने अपना तात्कालिक लक्ष्य हासिल कर लियालेकिन इसका नतीजा विनाशकारी था।

सिख धर्म के सबसे पवित्र मंदिर पर हमले ने व्यापक आक्रोश और अलगाव को बढ़ावा दिया। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों ने इसे और बढ़ा दिया। नरसंहार को रोकने में राज्य की विफलता और इसके अपराधियों की दंडमुक्ति ने ऐसे घाव और गहरे कर दिए जो अभी तक पूरी तरह से ठीक नहीं हुए हैं।

सोशल मीडिया और मेम-इफिकेशन

डिजिटल युग मेंक्रांतियाँ अब पैम्फलेट और भूमिगत बैठकों पर निर्भर नहीं करती हैं। वे हैशटैगवायरल वीडियो और इको चैंबर पर पनपती हैं। खालिस्तान आंदोलन ने अपने कथानक को बढ़ाने के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करते हुए जल्दी से खुद को ढाल लिया। गलत सूचना और भावनात्मक सामग्री के रणनीतिक उपयोग के साथअलगाववादी समूहों ने पंजाब की वास्तविकताओं से दूर,प्रभावशाली दिमागों को प्रभावित किया। इंस्टाग्राम रील्स पर पली-बढ़ी एक पीढ़ी के लिएजटिल इतिहास को अति सरलीकृत बाइनरी में बदल दिया गया था। “फ्री खालिस्तान” एक ऐसा नारा बन गया जो जमीनी हकीकत से उतना ही अलग था जितना कि भारत में अधिकांश सिखों की आकांक्षाओं से। 

उपहास के पीछे की सच्चाई 

खालिस्तान का मुद्दा बेतुकी बातों से भरा हुआ है। कल्पना कीजिएभारत का सबसे समृद्ध और प्रभावशाली समुदाय उत्पीड़न और हाशिए पर होने की शिकायत कर रहा हैखालिस्तान की मांग को बेतुका बनाने वाली बात यह है कि यह तब आया जब सिख समुदाय भारत के आर्थिकराजनीतिक और सामाजिक पिरामिड के शीर्ष पर था। लेकिन देशद्रोहियों और अवसरवादियों ने सार्वजनिक और वैश्विक धारणाओं में हेरफेर करने के लिए उपजाऊ जमीन तैयार की। यह आंदोलन उन काल्पनिक सपनों के बारे में है जो वर्चस्ववादी नशे की खुराक से प्रेरित अवास्तविक नक्शे बनाते हैं। 

भारत में लगातार सरकारों ने अक्सर इन घटनाक्रमों को सार्थक बातचीत के अवसरों के बजाय असुविधाओं के रूप में देखा। इस लापरवाही ने बाहरी ताकतों को बढ़ते आंतरिक असंतोष का फायदा उठाने का मौका दिया।

वैश्विक कूटनीतिक सर्कस

खालिस्तान मुद्दे पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया पाखंड की पराकाष्ठा रही है। पश्चिमी देशों ने भारत की संप्रभुता के लिए समर्थन का दावा करते हुएखालिस्तानी समूहों को अपनी धरती पर स्वतंत्र रूप से काम करने की अनुमति दी है। उनका औचित्यअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। बास्कक्यूबेककुर्दिस्तान और इसी तरह के अन्य आंदोलनों को आसानी से भूल जाना।

जबकि पश्चिम अपने पिछवाड़े में चरमपंथ की निंदा करता हैवह इसके निर्यात पर आंखें मूंद लेता है। हिलेरी क्लिंटन की "पिछवाड़े में सांपकी प्रसिद्ध उपमा सच साबित होती है विदेशों में चरमपंथी बयानबाजी के लिए पश्चिमी सहिष्णुता अक्सर उन्हें परेशान करती है। उदाहरण के लिए, 9/11 की त्रासदी। जर्मनी और फ्रांस में बढ़ती जातीय हिंसा का उल्लेख नहीं करना। और वे कनाडाअमेरिका और ब्रिटेन में बढ़ती खालिस्तानी सक्रियता को अपने जोखिम पर अनदेखा करते हैं।

एक तमाशा जो समाधान की मांग करता है

खालिस्तान सर्कस के चलतेएक बात स्पष्ट हैयथास्थिति से किसी को कोई लाभ नहीं होता। भारत के लिएसिखों की शिकायतों को नज़रअंदाज़ करना उस समुदाय को अलग-थलग करने का जोखिम है जिसने राष्ट्र के ताने-बाने में बहुत योगदान दिया है। प्रवासी समुदाय के लिएखालिस्तान की रोमांटिक धारणा से चिपके रहना केवल विभाजन को गहरा करता है और उन्हें समकालीन पंजाब की वास्तविकताओं से दूर करता है। उनकी शिकायतें फिलिस्तीनियोंकैटेलोनियाईबास्क अलगाववादियोंकुर्दों और कई अन्य लोगों की शिकायतों की तुलना में कम हैं।

अराजकता के बीच स्पष्टता का आह्वान

शायद अब समय आ गया है कि सभी हितधारक बयानबाजी से आगे बढ़ें। भारत को पंजाब में असंतोष को बढ़ावा देने वाले सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को स्वीकार करना चाहिए और उनका समाधान करना चाहिए। प्रवासी समुदायों को अपनी मातृभूमि के साथ रचनात्मक रूप से जुड़ना चाहिएन कि उन पुरानी विचारधाराओं के लेंस के माध्यम से जो उन्हें भारत के लिए परेशानी पैदा करने वाली षडयंत्रकारी विदेशी एजेंसियों द्वारा उपहार में दी गई हैं। गुरपतवंत सिंह पन्नूतलविंदर सिंह परमारहरदीप सिंह निज्जर जैसे लोग आईएसआई और पश्चिम में उसके संरक्षकों द्वारा रचे गए घातक गुप्तचर खेलों में खर्च करने योग्य हैं। जगजीत सिंह चौहान का उदाहरण सभी के सामने है। उन्हें भारत लौटना पड़ा और अपनी मूर्खताओं के लिए माफ़ी मांगनी पड़ी।

विश्व समुदाय को अपने भू-राजनीतिक खेलों में खालिस्तान मुद्दे का मोहरा के रूप में उपयोग करना बंद करना चाहिए। वास्तविक प्रगति आग को भड़काने में नहीं बल्कि उसे बुझाने में हैनई सीमाएँ बनाने में नहीं बल्कि विभाजन को पाटने में है। खालिस्तानी समर्थकों को यह समझना चाहिए कि वे अंतरराष्ट्रीय मंच पर केवल कठपुतली हैं। उनके कठपुतली संचालक वैश्विक भू-राजनीतिक नाटक जीतने के लिए उनका इस्तेमाल करेंगे। जब शो खत्म होगातो कठपुतलियों को निकटतम कूड़ेदान में फेंक दिया जाएगा। महान खालिस्तान शो कुछ लोगों की अल्पकालिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति कर सकता है। कई लोग इस तरह के भू-राजनीतिक कदमों को बेतुकेपन का मनोरंजक नाटक मान सकते हैंलेकिन वास्तविक जीवन सहारा नहीं है।

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