Tuesday, August 23, 2011

बालिका पर गहराते संकट के बादल


अब भ्रूण हत्या का केवल इतिहास में पाये जाने का समय आ गया है. ना होगी नवजात बालिका की हत्या और न किया जायेगा क्रूर गर्भपात. यह सोच कर प्रसन्न होने के स्थान पर हमें चिंतातुर क्यों होना चाहिए? भ्रूण एवं नवजात बालिका की हत्या हमारे समाज के माथे पर एक कलंक है. यदि यह कलंक मिट जाता है तो ... हाँ यह कलंक मिटना तो चाहिए और शायद मेडिकल विज्ञान में हो रही प्रगती के कारण आने वाले वर्षों में मिट भी जाये. परन्तु इस प्रगती से नारी जाति के अस्तित्व को लेकर एक नया संकट भी उत्पन्न हो रहा है. इस संकट का नाम है जीन मैनिपुलेशन अर्थात जीन के साथ वैज्ञानिक रूप से छेड़छाड़ करना. जैसा कि आप जानते हैं जीन हरेक जीव की कोषिका में स्थित वह ज्ञानतन्तु है जो उसके रूपरंग एवं व्यवहार को नियंत्रित करता है. और अब वैज्ञानिको ने यह भी साबित कर दिया है कि इस ज्ञानतन्तु की लिंग निर्धारण में भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है. अनेक वर्षों के परीक्षणों द्वारा उन्होने ऐसी वैज्ञानिक प्रक्रिया का आविष्कार कर लिया है जिसके द्वारा माता पिता अपनी संतान का लिंग-निर्धारण कर पायेंगे क्योंकि यह ज्ञानतन्तु बच्चों को उनके माता पिता से ही प्राप्त होता है. अब यह कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारे समाज में किस लिंग की संतान को पसंद किया जाएगा.

मेडिकल परीक्षणों द्वारा अनुवांशिकी जनन विज्ञान इतनी प्रगति कर गया है कि बिना खून खराबे के केवल पुत्रों को ही जन्म दिया जा सकता है तो यह सोच कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि बालिका का भविष्य कैसा होगा. अभी, जब कि ज्ञानतन्तु परिवर्तन प्रणाली प्रचलित नहीं हुयी है और आरम्भ में केवल धनाड्य परिवार ही इसके उपयोग का खर्चा सह सकेंगे तब निकट भविष्य तक बालिका हत्या का ज़ोर बना रहेगा. २१वीa सदी के भारत में हर सात मिनट में प्रसूति तथा हर ९३ मिनट में दहेज़ से जुड़ी मौत होती है. शिशु विवाह के कारण कच्ची उम्र में ही गर्भ होने से अनेक जटिलताएं उत्पन्न हो जाती हैं जो बालिका के लिए अक्सर जानलेवा भी साबित होती हैं. हर साल तकरीबन सवा करोड़ नवजात बालिकाओं में से मात्र एक तिहाई ही जीवित बच पाती हैं. लगभग पांच लाख को गर्भ में ही मार दिया जाता है. अन्य प्रसूति के समय अथवा कुपोषण एवं विभिन्न बिमारियों के कारण मौत की भेंट चढ़ जाती हैं. ऐसा पाया गया है की १३ से १८ वर्ष की उम्र की बालिकाओं में अरक्तता अनेमिया की काफी भरमार है.
 
 तेजी से बिगड़ रहा लिंग अनुपात सारे सामाजिक ढांचे को नष्ट कर रहा है और, अफ़सोस, हमारे समाज के शिक्षित और समृद्ध वर्ग इस संकट के प्रति उदासीन हैं. पंजाब हरयाणा और चंडीगढ़ देश के समृद्ध एवं शिक्षित राज्यों में गिने जाते हैं. अतः यह निष्कर्ष सहज होना चाहिए कि यहाँ स्त्री जाति  की अवस्था सुखप्रद होगी. लेकिन २००१ जनसँख्या के आंकड़े ठीक इसकी विपरीत तस्वीर प्रस्तुत करते हैं. ० से ६ वर्ष कि कन्याओं का देशव्यापी अनुपात ९२७ है जब कि इन तीन राज्यों में यह ७९९ और ८५० के बीच है! २००६ में किये गये एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार पंजाब में स्त्री संख्या अनुपात घट कर अब केवल ७७६ रह गयी है. और चंडीगढ़ में ७७७! हरयाणा का हाल भी इससे बेहतर नहीं है.

जब निदान-क्रिया सम्बन्धी तकनीक इतनी प्रगति कर गयी कि गर्भ में ही शिशु के लिंग का पता लगाया जा सके तो भ्रूण हत्या ने एक महामारी का रूप धारण कर लिया. इसको रोकने के लिए अनेक कानून बनाये गए जैसे कि १९७१ का मेडिकल  टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेगनेंसी एक्ट जिसका उद्देश्य उन महिलाओं को राहत देना था जो बलात्कार का शिकार हुई हों या जो स्वस्थ बच्चो को जन्म नहीं दे सकती. अतः वह अम्निओसेन्तेसिस और अल्त्रासाऊँड स्कैन्निंग के परिणामों के आधार पर गर्भपात करवा सकती हैं. किन्तु इस सहूलियत का गलत इस्तेमाल हो रहा है - स्वस्थ भ्रूण की हत्या केवल इस लिए हो रही है कि वो मादा है नर नहीं. इसी प्रकार १९९४ में पारित हुए  प्री-कंसेप्शन एंड प्री-नाटाल डायोग्निस्टिक तक्नीक्स (प्रोहिबिशन ऑफ़ सेक्स  सेलेक्शन) एक्ट बेकार सिद्ध होने पर २००२ में प्री-नाटाल डायोग्निस्टिक तक्नीक्स (रेगुलाशन एंड प्रिवेंशन ऑफ़ मिसयूज़) एक्ट पारित किया गया किन्तु व्यर्थ ही. 

चिंता का विषय यह है इस घटते अनुपात के कारण अनेक सामाजिक अपराध और कुरीतियाँ उत्पन्न हो रही हैं. अनेक माफिया उठ खड़े हुए हैं जो जबरदस्ती मजबूर महिलायों को देह व्यापार में धकेल रहे हैं. विवाह के लिये वधुओं के खरीद फरोख्त की घटनाएं भी ख़बरों में आ रही हैं. अगर हम बढ़ते हुए बलात्कार तथा अपहरण की घटनाओं को भी शामिल कर लें तो बालिका के लिए न तो उसकी माँ की कोख सुरक्षित है और न ही कोख के बाहर का संसार. समाज शास्त्री अक्सर चीन का उदाहरण देतें हैं जहां पुरुषों की एक बड़ी संख्या पत्नी विहीन है. उन्हें कुंवारा कहना गलत होगा क्योंकी वह अनेक प्रकार के यौनिक कुकर्मों में लिप्त रहते हैं जैसे कि पर स्त्री गमन, वेश्या से संपर्क अथवा बलात्कार. किन्तु अब ऐसा भारत में और खासकर पंजाब और हरयाणा में होने लगा है. अपहरण और बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों की मात्रा दिनों दिन बढ़ती जा रही है. साथ ही स्त्री व्यापार तथा विवाह के लिए वधुओं की खरीददारी की घटनाएं भी बढ़ रही हैं.
 
जब क़ानून अप्रभावी हो जाएँ और वैज्ञानिक शोध निरंकुश तो बालिका पर संकट के बादल और गहराएंगे ही. क्योंकी सामाजिक मूल्यों के पतन को सरकारी आदेशों से नहीं रोका जा सकता. पंजाब में नन्हीं छाँव नामक एक मोहिम आरम्भ की गयी थी. काश वह मोहिम अन्ना हज़ारे की मोहिम की भांति दावानल बन जाती!

रणदीप वडेरा

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