Tuesday, September 6, 2011

भारत के सामाजिक-राजनीतिक परिवेश में टेलिविज़न की भूमिका

१९५९ में जब टेलिविज़न भारत आया तब उस समय की केंद्रीय सरकार इसका राजनीति तथा विकास के सन्दर्भ में महत्व नहीं समझ सकी. यदि आज जवाहरलाल नेहरू जीवित होते तो उन्हें अपनी दूरदृष्टी में इस धूमिलता को लेकर काफी कोफ़्त होती. खैर, उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने जनसमुदाय में प्रचार माध्यम के रूप में टेलिविज़न की उपयोगिता पहचान ली थी. उन्होने जल्द ही इस माध्यम को विकसित किया और उसपर प्रसारित प्रत्येक कार्यक्रम चाहे वह मनोरंजन अथवा समाचार एवं सूचना के लिए था का प्रमुख उद्देश्य जनमानस की सोच को अगर नियंत्रित नहीं तो कम से कम इस प्रकार से प्रभावित करे कि इंदिरा सरकार के अनुरूप हो जाए. इस प्रकार १९८० के दशक में टेलिविज़न राजनीतिक लक्ष्य प्राप्ति का प्रभावशाली साधन बन गया. साथ साथ एक और आयास प्रारम्भ किया जाने लगा. समाजवादी परिवेश में पूंजीवादी उपक्रम किये जाने लगे. उन दिनों दूरदर्शन पर व्यवसायिक विज्ञापनों की शुरुआत की गयी जो शीघ्र ही दूरदर्शन की आमदनी का प्रमुख हिस्सा बन गए. इसका देश के सामाजिक ढांचे पर काफी प्रभाव पड़ा क्योंकि चंद ही वर्षों में एक नयी सामाजिक श्रेणी उपभोक्ता श्रेणी का विकास हुआ जिसे आगे चलकर मिडल क्लास अथवा मध्यवर्ग कहा जाने लगा. अतः यह कहना अतिशयोक्ती नहीं होगी कि भारतीय मध्यवर्ग टेलिविज़न की देन है.

सैटललाईट टीवी के आने से देश के प्रसारण के स्वरूप का कायाकल्प हो गया. सर्वप्रथम तो समाचार एवं मनोरंजन संबंधी कार्यक्रमों पर सरकार का शिकंजा ढीला पड़ते पड़ते अब लगभग लुप्त हो गया है. लेकिन ऐसा होने से पहले समाज और मीडिया में कुछ क्रांतिकारी बदलाव शुरू हो चुके थे. रामायण और महाभारत के प्रसारण से देश के राजनीतिक हलकों में हिंदुत्व का रंग गहरा होने लगा जिस पर चाणक्य ने तो ठप्पा ही लगा दिया. चाणक्य का नायक न केवल कट्टर राष्ट्रवादी की भाषा बोलता था बल्कि माँ भारती का अनेकानेक बार उच्चारण करके तथा मंदिरों में स्थापित पाठशालाओं को देशभक्तों का प्रशिक्षण केंद्र दिखा कर दक्षिणपंथी विचारधारा का लुभावना उदाहरण भी प्रस्तुत किया. कहने की आवश्यकता नहीं कि इसका लाभ सब से अधिक किस राजनीतिक पार्टी को हुआ होगा.

नलिन मेहता जैसे बुद्धिजीवियों (उन्होने इंडिया ऑन टेलिविज़ननामक एक किताब लिखी है) का कहना है कि यदि २००२ के गुजरात दंगों के देश-व्यापी परिणामों का सामना बीजेपी निजी समाचार चैनलों के कारण कर पाई. उनका यह भी कहना है कि अगर १९९२ में निजी चैनल होते तो बाबरी मस्जिद काण्ड नहीं हो पाटा. नलिन मेहता की दोनों मान्यताएं चर्चा का विषय हैं क्योंकि यह भी तो हो सकता था कि बाबरी मस्जिद काण्ड फिर भी हो जाता और उसका भरपूर लाभ दक्षिण पंथियों को ही मिलता.
 
खैर, मुद्दे पर वापिस आते हुए हम यह पाते हैं कि भारत की विभिन्न भाषाओं और क्षेत्रों में निजी सेटललाईट चैनलों के आने से समाचारों को एकत्रित करने की प्रक्रिया में, उनकी विषयवस्तु निर्धारित करने तथा उनके प्रसारण के हर पहलू में बदलाव आया है. अतः अब दर्शक अपनी पसंद का कार्यक्रम चुन सकते हैं. चाहे वह कार्यक्रम मनोरंजक हो अथवा किसी भी सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक विचारधारा से सम्बन्ध रखता हो. ऐसा इस लिये भी संभव हो सका है कि अब सरकारी नियंत्रण, कुछ पहलुओं को छोड़ कर ना के बराबर हो गया है. यही कारण है कि अन्ना हज़ारे की मोहिम ने सारे देश को रोमांचित कर दिया. यदी सरकारी हस्तक्षेप होता तो शायद हज़ारे के बारे में समाचार तक प्रसारित न हो पाता.

परन्तु यह कहना भी गलत होगा कि टीवी केवल वरदान है. अनेक बार यह अभिशाप के रूप में भी प्रस्तुत हुआ है. हमने देखा है कि विशेष प्रकार के दर्शकों को आकर्षित करने के लिए कृतृम और सनसनीखेज़ समाचारों का प्रसारण और तथाकथित स्टिंग आपरेशनों को भी चलाया गया है. हालांकि नेता उनके प्रिय शिकार रहे हैं अभिनेताओं को भी नहीं बख्शा गया. एक उदाहरण ऐसा भी सामने आया जब कि एक टेलिविज़न अभिनेता पर लगाया गया यौन शोषण का अभियोग गलत साबित हुआ. जिस प्रकार से समाचार टीवी वालों ने आरुषी हत्याकांड में गरीब नौकरों को मुजरिम करार दिया था वह एक संसनीवाद का शर्मनाक उदाहरण माना जाएगा. परन्तु निजी जीवन में टीवी का हस्तक्षेप यहीं तक सीमित नहीं रहा. हर रोज़ कभी कोई घरेलू मारपीट या निजी कलह के सनसनीखेज़ समाचार वीडियो क्लिप के साथ प्रसारित होने लगे. ऐसा करने से सामाजिक बुराईओं को बढ़ावा ही मिलता है.

मीडिया के रिपोर्टर तथा सम्पादक अक्सर यह भूल जाते हैं कि उनका काम एक घटना को समझना है और इस प्रकार प्रस्तुत करना है कि आम दर्शक भी उसके विभिन्न पहलुओं को समझ सके. इस बात को ना समझने में कोई समझदारी नहीं है.


रणदीप वडेरा   


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