Sunday, January 26, 2014

महात्मा गाँधी की आध्यात्मिक यात्रा का उनकी विचारधारा पर प्रभाव


पुस्तक समीक्षा



Gandhi: a spiritual biography by Arvind Sharma
Hachette. Pages: viii+252. Price: Rs. 550/-

“महात्मा गाँधी के लिए मेरा आदर गहरा और चिरस्थायी है. उनकी हत्या करके मुझे कोई खुशी नहीं हुई. वास्तव में उनके प्रति मेरे भाव वैसे ही हैं जैसे कि अर्जुन के द्रोणाचार्य के प्रति उस समय थे जब उन्होंने उनकी हत्या करी थी. द्रोणाचार्य उनके गुरु थे जिनके चरणों में बैठकर उन्होंने युद्ध की शिक्षा प्राप्त की थी. लेकिन गुरु द्रोणाचार्य ने दुष्ट कौरवों का साथ दिया...” यह शब्द गांधीजी के हन्ता नाथूराम गोड्से के हैं जो उसके द्वारा अदालत में दिए गए कथन का हिस्सा हैं. उसने यह भी कहा कि जिस तरह अपने गुरु की हत्या करने से पहले अर्जुन ने उनके चरणों में बाण चलाकर प्रणाम किया था, उसी प्रकार उसने भी पहले गांधीजी के चरणों में झुककर प्रणाम करा और फिर उनपर गोलियां चलाईं. स्पष्टतः महात्मा गाँधी की आध्यात्मिक शक्ती का प्रभाव गोड्से जैसे नफरत से भरे सांप्रदायिक जुनून वाले हत्यारे पर भी हुआ था. और गोड्से के “दुष्ट कौरव” मुसलमान, विशेषकर पाकिस्तान, के सिवा और कौन हो सकता था भला. गांधीजी ने ऐसा क्या कर दिया था कि उनको गोड्से के घृणा से भरे क्रोध का शिकार होना पड़ा? उन्होंने एक सिद्धांत के हेतु मरण-व्रत रखा था. उनका कहना था कि दूसरी तरफ से कैसी भी उत्तेजक कार्यवाही हो भारत सरकार को अपने दिए हुए वचन का पालन करना ही चाहिए. उन दिनों दोनों देशों के बीच सहाधिकार संपत्ति के बंटवारे को लेकर तब विवाद उत्पन्न हुआ जब भारत ने कश्मीर पर पाकिस्तानी घुसपैठ के विरोध में सम्मत राशी की तीसरी किश्त रोक दी थी. गांधीजी के लिए प्रचलित जनमत के विरुद्ध जाकर न्यायसंगत कार्य करना कोई नयी बात नहीं थी. लेकिन ऐसा करने का साहस और बल उसी के पास होता है जिसकी हर सोच कीं नींव आध्यात्मिक हो.

हालाँकि कई लोग उनको संत के चोले में एक सारमय राजनीतिज्ञ मानते थे, वास्तव में वह सब धर्मों और सम्प्रदायों का आदर करने वाले एक आध्यात्मिक हस्ती थे. प्रमुखतः उनकी विचारधारा पर हम तीन व्यक्तियों का प्रभाव देखते हैं. उनकी माँ, जो प्रणामी सम्प्रदाए से थीं, उनके मित्र रायचंद जो जैन संप्रदाय से थे और उनके पिता. यही कारण था कि उनका विकास एक उदार सामाजिक-राजनीतिक-आध्यात्मिक शक्ति के रूप में हुआ और उनकी गिनती बीसवीं सदी के महानतम व्यक्तियों में होती है.

हालाँकि वह धार्मिक प्रवृत्ती के थे, धर्म उनके लिए एक नैतिक शक्ति अधिक और कर्म-काण्ड का संकलन कम था जबकि वह मानते थे कि अनुष्ठान आदि हर पंथ की अपनी विशेषता के अनुसार किये जाते हैं. जैसे जैसे उनके व्यक्तित्व में विकास आता गया उनका यह विश्वास दृढ़ होता चला गया कि भारत का समावेशी राष्ट्रवाद धर्मनिरपेक्ष व्यवहारिक वृत्ति पर आधारित होना चाहिए. वह भारत की सांस्कृतिक एकता को महत्व देते थे जिससे राष्ट्रीयता परिभाषित होती है. चिरकाल से भारत के लोग चार धामों – उत्तर में केदार, दक्षिण में रामेश्वरम, पूरब में पुरी तथा पश्चिम में द्वारका – के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा रखते आ रहे हैं. यही श्रद्धा भारत की सांस्कृतिक एकता का कारण है जो देश की राजनीतिक एकता की ठोस नींव साबित हुई. पाकिस्तान के जन्म के बाद भी आज भारत विभिन्न सम्प्रदायों और धर्मों के लोगों की मातृभूमि है. 

उनकी वैष्णव विरासत ने गांधीजी को उत्कट रामभक्त बना दिया था. लेकिन उनकी यह भक्ति धर्मांध न होकर प्रबुद्ध थी. वह राम से अधिक रामनाम को शक्तिशाली मानते थे. उनका कहना था, “आरम्भ में मैं राम की पूजा सीता के पति के रूप में करता था. लेकिन अनुभव और ज्ञान में वृद्धि होने से मेरे राम अविनाशी तथा सर्वभूत हो गए... राम की छवि के साथ सीता के पति के अर्थ भी विस्तृत होते चले गए.” अतः आने वाले वर्षों में राम गांधीजी के आचरण के प्रेरणास्त्रोत्र बन गए. चाहे लन्दन जाने से पहले माँ को शराब, स्त्रीगमन और मांस से परहेज़ का वायदा हो या फिर उनका हठ कि भारत पाकिस्तान को दिया वचन निभाए, गांधीजी अपनी गतिविधियों को राम के पथ पर चलने के सामान मानते थे. उनके लिए केवल सत्य नहीं बल्कि हर हाल में सत्य की मर्यादा बनाए रखना आस्था की बात बन गयी थी. यह आस्था उनके आध्यात्मिक व्यक्तित्व का सार बन गयी थी जिससे उनको व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में कठिन चुनौतियों का सामना करने की शक्ति, साहस और सामर्थ्य मिली. वस्तुतः, आज भी लोग हैरान होते हैं कि कैसे वह इन चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रत्यक्षतः अनंत ऊर्जा जुटा लेते थे. हम जानते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका को राजनीतिक माना जाता है. समाज सुधार में उनके योगदान को भी सर्वत्र स्वीकारा जाता है. इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि वह अपने हर संघर्ष को तर्कसंगत निष्कर्ष तक लेजाकर ही दम लेते थे.

उनके हर कार्य में आदर्शवाद का सार अवश्य होता था. जब उनको दक्षिण अफ्रीका के नटाल में पीटरमरित्ज़बर्ग स्टेशन पर अपमानित करके रेलगाड़ी से उतार दिया गया था तब, अरविन्द शर्मा के शब्दों में, “इस बात पर न हैरान होना असंभव है कि अपमानित होने की दशा में भी उनकी सोच में संयम था. वह अपने क्रोध का प्रदर्शन न करके अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक थे. वह बदले के बारे में न सोचकर न्याय के बारे में सोचने लगे. उनके अनुसार बदला लेने की क्रिया में अन्याय अवश्य होता है...” न्याय की उनकी तलाश उनके सहयोगियों को भी अव्यवहारिक लगती होगी. परन्तु वह हतोत्साहित नहीं होते थे. जब दक्षिण अफ्रीका में अपना केस निबटाकर वह वहां से जाने की तैय्यारी में थे तब उनकी नज़र अखबार की एक खबर पर पड़ी जिसके अनुसार नटाल विधानमंडल भारतीयों को उनके मताधिकार एवं नागरिकता से वंचित करने वाले विधेयक को पारित करने के बारे में गंभीरता से सोच रहा था. एक व्यवहारकुशल वकील इस सरदर्द से बचने का बहाना खोज लेता लेकिन गांधीजी इस विधेयक के विरुद्ध अभियान छेड़ने का निश्चय कर वहीं रुक गए. वह वहां से तब वापिस गए जब विधेयक को खारिज कर दिया गया और भारतीयों की नागरिकता सुरक्षित हो गयी. 

उनकी यही आध्यात्मिकता संभवतः लन्दन में उनका कवच बन गयी जहां उनको अनेक प्रकार के प्रलोभनों और मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. अनेक बार उन्होंने कामुक संतुष्टी के अवसरों को तिरस्कृत किया. और जब वह लन्दन जाने की तैय्यारी कर रहे थे तब उनके समुदाय के बुजुर्गों ने उनको जाति से बाहर कर दिया. लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और उनके सामने अपना पक्ष स्पष्ट किया, हालांकि इससे गांधीजी को कोई विशेष समर्थन प्राप्त नहीं हुआ. इसी प्रकार, वर्षों बाद, जब उन्होंने अछूत जनता के उद्धार का अभियान छेड़ा तो उच्च जाती के लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा, पर वह निरुत्साहित नहीं हुए. वह जानते थे कि इस लक्ष्य की प्राप्ती के लिए उनको एक साथ अनेक मोर्चों पर संघर्ष करना होगा – सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक. इसलिए जीवनपर्यंत उनके प्रयासों का मूल आधार नैतिक दबाव रहा.

यह जीवनी गांधीजी की स्तुति न होकर उनके उन विचारों और क्रियाओं पर भी सवाल उठाती है जिनको हम सकारात्मक नहीं कह सकते. उन्होंने अपनी मृत्युशैय्या पर पड़ी पतिव्रता पत्नी को पेनिसिलिन देने से यह कहकर मना कर दिया था कि अब इलाज का समय निकल चुका है. अरविन्द शर्मा पूछते हैं, “क्या गांधीजी ईश्वर के इतने समीप पहुँच चुके थे कि वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लग गए थे?” गांधीजी ने स्वयं यह स्वीकार करा है कि वह आदर्श पिता नहीं बन सके थे. एक बार जब उन्होंने अपने पुत्रों को उनकी जीवन शैली अपनाने की इच्छा व्यक्त की तो कस्तूरबा ने कह दिया था, “आप महात्मा होंगे लेकिन मैं अपने बच्चों को महात्मा नहीं बनने दूंगी.”

खैर राजनीतिक अभियानों के प्रति गांधीजी के योगदान को लेकर अरविन्द सर्वविदित लेकिन महत्वपूर्ण बात कहते हैं, “गांधीजी ने युद्ध की एक नयी शैली को जन्म दिया जो इसलिए अद्वितीय नहीं कि इसमें हत्या शामिल नहीं थी, क्योंकि कुछ प्रदर्शनकारी, जो उनके सैनिक थे, मारे जाते थे. यह शैली इसलिए अद्वितीय थी क्योंकि वह सैनिक स्वयं मर जायेंगे लेकिन किसी की भी हत्या नहीं करेंगे.”

जब हम सोचते हैं कि क्यों कुछ अभियान सफल होते हैं और कुछ असफल, कुछ जनसमुदाय के मानसपटल पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं और कुछ भुला दिए जाते हैं तो हमारी नज़र मात्र एक तत्व पर पड़ती है – आध्यात्मिक शक्ति – जो निःस्वार्थ एवं सत्य निष्ठा पर आधारित है. यही कारण है कि नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग, आचार्य विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण सरीखों ने इतिहास पर अपने पदचिन्हों की छाप छोड़ी हालांकि ऐसा करना उनका ध्येय नहीं था. उनकी प्रेरणा तो निष्कपट आस्था थी. उनके प्रेरणास्त्रोत्र गांधीजी की महानता इस बात में नहीं थी कि उन्होंने भारत की स्वाधीनता में अद्वितीय योगदान दिया बल्कि इसमें थी कि उन्होंने मानव जाती को विरासत में ऐसी युद्ध शैली दी जो न केवल पारदर्शी रूप में ईमानदार थी बल्कि वृत्ती में आध्यात्मिक थी. हमें इस विरासत के मूल्य का तब पता चलता है जब हम देखते हैं कि कैसे हिंसक अभियान या तो खून की होली बनकर रह जाते हैं या फिर केवल निष्प्रयोजन की दलदल में फंस जाते हैं और अत्यधिक महंगी विजय दिलवाते हैं. अतः हमारे आज के राजनीतिज्ञों का यह कर्तव्य बनता है कि इस अमूल्य विरासत को संभालकर रक्खें. 

गांधीजी के ऊपर साहित्य की अनेक रचनाएँ उपलब्ध हैं. परन्तु उनमे उनके राजनीतिक व्यक्तित्व पर अधिक और आध्यात्मिक व्यक्तित्व पर कम ध्यान दिया गया है. लेकिन अरविन्द शर्मा की यह रचना न केवल उनके आध्यात्मिक विकास का लेखाजोखा देती है बल्कि इस विकास का उनकी व्यक्तिगत, सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों पर असर की व्याख्या भी करती है. इस जीवनी को सबको, विशेषकर नयी पीढ़ी के नेताओं को अवश्य पढ़ना चाहिए.

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