Sunday, January 12, 2014

लोकतान्त्रिक मूल्य और राजनीतिक दृष्टी







अब जब प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने तीसरी पारी खेलने से इन्कार कर दिया है तो राहुल गाँधी को गांधीटोपी और सफ़ेद खादी धारण करने वालों की एकमात्र आशा माना जा रहा है. लेकिन जननायक की भूमिका में उन्हें स्वयं को अभी साबित करना है. मोदी इस भूमिका में अपना सिक्का जमा चुके हैं. परन्तु, जब हम ख़बरों में मोदी की क़ानून की मर्यादा तोड़ने की प्रवृत्ती के बारे में पढ़ते सुनते हैं तो विचलित होना स्वाभाविक है. आम आदमी पार्टी के कन्धों पर ऐसा कोई अपराध-बोध का बोझ नहीं है. अरविन्द केजरीवाल एक पंचमतत्वीय भारतीय आम आदमी हैं. उनकी नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा पर कोई शक नहीं कर सकता और यह सब मानते हैं  कि वह सीधे पथ पर चलने वाले नेता हैं...

एक राजनीतिक दल की उपयोगिता, सबद्धता एवं प्रासंगिकता ऐसे कार्यक्रम और नीतियाँ बनाने की क्षमता पर निर्भर करती हैं जो जनता की अबिलाषा-आकांक्षाओं और देश हित से जुड़े हुए हों. अतः अनुरूप लक्ष्य निर्धारित करना और उनको प्राप्त करने के लिए संसाधन और व्यवस्था तैय्यार करना आवश्यक हो जाता है. इसलिए एक सोची-समझी विचारधारा का होना अनिवार्य है जो कि स्पष्ट दृष्टी एवं नीती पर निर्भर करती है. इस प्रकार एक राजनीतिक दल पूर्वनिर्धारित लक्ष्यों तक पहुँचने के लिए मानचित्र तैय्यार कर सकता है. खेद है कि आज हमारे राजनीतिक दल अपनी विचारधाराओं के प्रति निष्ठा नहीं रखते. वह देश और समाज में व्याप्त अनेकानेक धर्म एवं जातियों पर आधारित विभाजनों और परतों का अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए दुरुपयोग कर रहे हैं. अखंड भारत के सपने सजाने वाले दक्षिण पंथी दल वास्तव में अपने व्याख्यानों और गतिविधियों द्वारा देश को खंडित करने का प्रयत्न करते दीखते हैं. किन्तु यह हमारे देश और समाज का सौभाग्य है कि जब भी संकट और निराशा के बादल छाने लगते हैं कोई न कोई उजाले की किरण प्रकट हो ही जाती है. इस बार अन्ना हज़ारे के सुधारवादी आन्दोलन ने आम आदमी पार्टी के रूप में सूर्यकिरण को प्रस्फुटित होने का अवसर दिया. इस समय, संभवतः, आ.आ.प. एक मात्र ऐसा राजनीतिक दल है जो वोट बैंक की राजनीती से सख्त परहेज़ करता है. धर्म और जातिवाद से परे यह दल अपनी निरपेक्षता का ढिंढोरा नहीं पीटता और देशभक्ति से परिपूर्ण होने पर भी यह इस भाव को अति तक नहीं ले जाता. 

कुछ समय पहले तक यह माना जा रहा था कि २०१४ के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी आसानी से प्रधान मंत्री की गद्दी पर आसीन हो जायेंगे. ऐसा विश्वास इसलिए भी था क्योंकि कांग्रेस पार्टी अपने और सहयोगी दलों के कर्मकांडों के फलस्वरूप जाल में फंसे पक्षी के समान दीखने लगी थी. लेकिन दिल्ली चुनाव ने इस समीकरण को उलट-पलट कर रख दिया. आ.आ.प के एक राजनीतिक शक्ति के रूप में उभर कर सामने आने से नयी संभावनाएं उपजी हैं जिनको नकारना किसी भी राजनीतिक दल के लिए असंभव है. फलतः नरेन्द्र मोदी का खेमा इस नयी चुनौती का सामना करने की नीती पर चिंतित है तो कांग्रेस पार्टी में भी गतिविधियाँ ज़ोर पकड़ने लगी हैं. प्रियंका गाँधी का अचानक राहुल गाँधी के घर में हो रही वरिष्ठ नेताओं की बैठक में शामिल होना इस तरफ संकेत करता है कि वहां आ.आ.प की चुनौती को काफी गंभीरता से लिया जा रहा है. फलतः अब आम जनता के सामने २०१४ के चुनावों में एक और विकल्प उत्पन्न हो गया है. 

समीक्षकों के लिए ऐसे व्यक्तियों पर केन्द्रित होना आसान होगा जो अपने अपने दलों के चेहरों के रूप में आगामी आम चुनावों में उतरेंगे, लेकिन सम्पूर्ण तस्वीर को समझने के लिए हमें दोनों राष्ट्रीय दलों पर ध्यान देना होगा. भा.ज.पा. ने कई रूप बदले हैं. सर्वप्रथम वह ‘सबसे अलग और स्वच्छ पार्टी’ बनकर अवतरित हुई. परन्तु भारत की राजनीतिक विषमताएं ऐसी हैं कि उसको जल्द ही कांग्रेस की तरह विभिन्न दृष्टीकोणों का चबूतरा बनने का प्रयत्न करना पड़ा. हाँ, वह इसमें सफल न हो सकी क्योंकि वह अपनी मूलभूत राजनीतिक विचारधारा पर अडिग रही. फलतः भा.ज.पा. को दक्षिणपंथी नारों में गांधीवादी समाजवाद का तड़का लगाना पड़ा, बिना यह समझे या समझाए कि यह गांधीवादी समाजवाद है किस चिड़िया का नाम. कट्टरपंथी नीतियों के परिणाम – बाबरी मस्जिद और २००२ गुजरात दंगे – ने भा.ज.पा. के उन प्रयत्नों और नीतियों से देश का ध्यान बंटा दिया जिनके फलस्वरूप भारत विश्व की महाशक्ती के रूप में उभरने को तत्पर हो रहा था. साथ ही अनेक घोटालों तथा आंतरिक कलहों ने उसकी “सबसे अलग और स्वच्छ” छवि को फीका कर दिया. और जब वह बोफोर्स मामले में अपने आरोपों को सरकार में रहते हुए भी सच साबित नहीं कर सकी तो उसकी विश्वसनीयता पर आंच आयी. 

लेकिन पिछले दस सालों में अपनी छवि सुधारने में भा.ज.पा. काफी हद तक सफल रही है. भा.ज.पा शासित राज्यों में स्वच्छ और सुचारू शासन व्यवस्था एवं विकास ने देश की जनता को प्रभावित किया है. परन्तु इन उपलब्धियों के यश के साथ साथ उसको घोटालों एवं येडयुरप्पा के साथ पुनर्मिलन की कोशिशों का हिसाब भी मतदाताओं को देना होगा. ऊपर से संघ परिवार के कुछ तत्वों द्वारा उग्रता का प्रदर्शन – जैसा कि प्रशांत भूषण के कश्मीर वक्तव्य को लेकर किया गया – ने छवि मलिन करने का काम किया है क्योंकि ऐसे काम देश की लोकतान्त्रिक परंपरा के विरुद्ध है. जो मुद्दा सदन में और अन्य लोकतान्त्रिक मंचों पर चर्चा एवं बहस द्वारा सुलझाना चाहिए उसको हिंसा द्वारा निपटाने का प्रयत्न हर तरह से ग़लत है. और अगर कोई सख्त प्रतिक्रिया करनी ही थी तो सही रास्ता अदालत की तरफ जाता है.  

अगर हम राजनीतिक एवं आर्थिक पंडितों की मानें तो प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की यू.पी.ए. २ पूर्णतः विफल रही है. न तो कोई अन्तरिक्ष एवं प्रौधोगिकी के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियों को महत्त्व देना चाहता है और न ही अर्थव्यवस्था में सुधारों के प्रयत्न की सराहना करना. इस समय उनकी सरकार की छवि एक अशक्त लकवे के रोगी जैसी दीखती है. यह वही मनमोहन सिंह हैं जिनकी पहली पारी में उनकी आर्थिक तथा शासन संबंधी नीतियों ने भारत को विश्व में आदर दिलवाया था. अब उसी सरकार के नेतृत्व में भारत की आर्थिक विकास दर लगभग १०% से गिरकर ५% से भी नीचे पहुँच रही है. क्या इसमें उनके सहयोगियों की ईर्ष्या और असुरक्षा की भावना की भी कोई भूमिका रही है? ऐसा अभी स्पष्ट नहीं है लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि उनके अनेक प्रयत्नों एवं नीतियों को अगर ध्वंस नहीं तो विकृत अवश्य करा गया है. 

खैर, अब जब मनमोहन सिंह ने प्रधान मंत्री पद की तीसरी पारी से इन्कार कर दिया है तो सबकी नज़रें राहुल गाँधी पर टिकी हुई हैं. अब उनको गांधीटोपी और सफ़ेद खादी धारण करने वालों की एकमात्र आशा माना जा रहा है. लेकिन जननायक की भूमिका में उन्हें स्वयं को अभी साबित करना है जबकि मोदी इस भूमिका में अपना सिक्का जमा चुके हैं. परन्तु, जब हम ख़बरों में मोदी द्वारा क़ानून की मर्यादा तोड़ने की प्रवृत्ती के बारे में पढ़ते सुनते हैं तो विचलित होना स्वाभाविक है.

आ.आ.प के कन्धों ऐसा कोई अपराध-बोध का बोझ नहीं है. उसके सदस्यों की छवि स्वच्छ है. और दिल्ली में उसकी सरकार पहले दिन से ही कार्यरत हो गयी है. अरविन्द केजरीवाल एक पंचमतत्वीय भारतीय आम आदमी हैं. उनकी नैतिक मूल्यों में निष्ठा पर कोई शक नहीं कर सकता और यह सब मानते हैं  कि वह सीधे पथ पर चलने वाले नेता हैं. लेकिन यह कहना भी ठीक होगा कि अनेक मतदाता, राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी एवेम समीक्षक उनकी पार्टी पर नज़र टिकाये हुए हैं. अतः अपने आप को साबित करने के लिए उनके पास एक ही विकल्प है – किये हुए वादों को पूरा करें या पूरा करने का भरसक एवं नेकनीयत प्रयत्न करें. और ऐसा वह कर भी रहे हैं. किन्तु अभी उनको अपनी सार्वजनिक तस्वीर को पूर्ण करना है. भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन मात्र से वह सक्षम शासक सिद्ध नहीं हो जाते. उनको अनेक राष्ट्रीय मुद्दों पर अपना दृष्टीकोण अभी स्पष्ट करना है. भारत की आंतरिक एवं बाहरी सुरक्षा पर उनके विचार स्पष्ट नहीं हैं. हमें विश्वास है कि प्रशांत भूषण के कथनों से वह सहमत नहीं. उन्हें अपना मूल अमिश्रित दृष्टीकोण सूत्रित करके देश के समक्ष रखना होगा. उनकी विदेशनीति के बारे में भी कोई जानकारी नहीं है. देश की अर्थव्यवस्था को विकसित करने की क्या राह अपनाई जायेगी, इसका मानचित्र अब बन जाना चाहिए. इसी प्रकार देश की अनेक संस्थाओं जैसे न्यायतंत्र, पुलिस एवं शिक्षा आदि में व्यापक सुधार लाने की नीती का ग्रंथन भी होना बाकी है. फिलहाल तो उनको एक स्पष्ट और सर्वग्राही दृष्टी को सूत्रबद्ध करके देश के सामने रखने की आवश्यकता है. वामपंथी अभिज्ञान और दक्षिणपंथी संकेत शब्दों की पकाई खिचड़ी उनकी विचारधारा के बारे में अनेक भ्रम एवं भ्रांतियां उत्पन्न कर रही है. इस अभावात्मक प्रवाह को रोकना आवश्यक है.

आ.आ.प. को उन चोर-खड्डों से भी सावधान रहना होगा जो सफलता की राह पर हर कदम पर बिछे हुए मिलेंगे. हमने देखा है कि कैसे सशक्त और संपन्न तत्व भा.ज.पा. एवं कांग्रेस सरीखी पार्टियों को फैंट कर अपनी स्वार्थसिद्धी कर लेते हैं. अनेक राजनीतिक दलों में ऐसे सशक्त तत्वों के मुख्तारों की कमी नहीं है. फलस्वरूप, न केवल ऐसे दल अपनी विचारधाराओं से पथभ्रष्ट हो जाते हैं बल्कि आम मतदाता का ख्याल उनके मानसपटल से ओझल हो जाता है. फिर भी यह दल आ.आ.प. की विचारधारा और दृष्टी को लेकर कटाक्ष करने से नहीं हिचकते. 

क्या भविष्य में भी आ.आ.प. आम आदमी और उसके हितों पर केन्द्रित रह सकेगी? क्या वह अपने उच्च नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठावान रह सकेगी? इन प्रश्नों के उत्तर तो भविष्य के गर्भ में हैं. लेकिन अगर होनहार बिरवान के पात वास्तव में चीकने होते हैं तो हम भविष्य की और आत्मविश्वास से देख सकते हैं. अगर आ.आ.प. इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाती है तो देश का भविष्य और उसके लोकतान्त्रिक मूल्य सुरक्षित हो जाते हैं.


No comments:

Featured Post

RENDEZVOUS IN CYBERIA.PAPERBACK

The paperback authored, edited and designed by Randeep Wadehra, now available on Amazon ALSO AVAILABLE IN INDIA for Rs. 235/...