Sunday, January 5, 2014

क्रांति नहीं, सहज परिवर्तन







जब हम आ.आ.प की दिल्ली चुनावों में सफलता के बारे में क्रान्ति उपनाम लगता सुनते हैं तो अजीब सा लगता है. ऐसा प्रतीत होता है मानो दिल्ली सरकार में बदलाव उग्र एवं आकस्मिक था तथा किसी हिंसक प्रतिक्रया का परिणाम हो. किन्तु उग्रता एवं हिंसा न तो हमारे समाज की और न ही हमारी राजनीतिक तहज़ीब की विशेषता है. हमने सदा दीर्घसूत्री परन्तु उत्तरोत्तर परिवर्तन पसंद किया है. यही कारण है कि आज़ादी के बाद हमने लोकतांत्रिक प्रणाली को चुना जबकि अन्य नव स्वतन्त्र राष्ट्रों में अधिकतर ने तानाशाही और एकदलीय प्रणालियों को अपनाया. हमारी इस सोच की जड़ें संभवतः हमारे प्राचीन इतिहास में स्थित हैं. भारत में ईसाकाल से ६ शताब्दी पूर्व गणतंत्रों और संघो का प्रचलन था. अक्सर राजकाज को चलाने के लिए जनसमूह के प्रतिनिधि विधानसभा या जनसभा में शामिल होते थे. भगवान् बुद्ध के शाक्य कबीले में जनसभा के प्रतिनिधि समाज के हर वर्ग से आते थे और राजवंश उनके विचारों को सादर सुनता भी था और अमल भी करता था. ऐसे अनेकोनेक उदाहरणों से हमारा प्राचीन इतिहास भरा पड़ा है. 

अतः हमें अचरज नहीं होना चाहिए कि स्वतन्त्रता के बाद न सिर्फ हमने लोकतंत्र को चुना बल्कि समस्त लोकतान्त्रिक देशों में हमने सबसे अधिक तेजी से लोकतान्त्रिक संस्थाओं और प्रतिष्ठानों को मजबूती से स्थापित किया. क्रान्ति और लोकतंत्र का कोई मेल नहीं. विकास एवं परिवर्तन न केवल धीमी गति से होते हैं बल्कि यह आम सहमती पर निर्भर होते हैं. लोकतंत्र में आम सहमती विचार-विमर्श और तर्क-वितर्क के बाद ही संभव है, जो कि लोकतान्त्रिक संस्कृति की विशेषता है. इस सन्दर्भ में आम आदमी पार्टी का उदय एक ऐतिहासिक परम्परा का अगला तर्कसंगत कदम है. अगर हम केवल वर्तमान घटनाक्रम को ही देखें तो आ.आ.प का जन्म २०११ में अन्ना हज़ारे के आन्दोलन का परिणाम है. या यूं कहें कि यह उस सामाजिक आन्दोलन का राजनीतिक अवतार है. ११९२ में पद्म भूषण पाने से कई वर्ष पूर्व से अन्ना जी समाज की भलाई के लिए अनेक संघर्ष एवं त्याग करते रहे हैं. भारतीय सेना से उन्हें जो भी राशि मिली थी वह सारी उन्होंने अपने गाँव के सुधार में लगा दी. शनैः शनैः वह समाज सुधारक के साथ साथ शासन में त्रुटियों के सक्रिय प्रतिवादी भी बन गए. और अब वह समाज में अन्याय तथा अन्य त्रुटियों एवं बुराइयों के विरोध का स्तम्भ बन चुके हैं. चाहे महाराष्ट्र सरकार के विरुद्ध या फिर राष्ट्रीय सरकार के, उनके सारे संघर्ष गांधीवादी परम्पराओं के अनुसार अहिंसक रहे हैं. यह परंपरा अब हमारे राष्ट्रीय चरित्र का अहम् हिस्सा बन चुकी है. इस बात का प्रमाण है ऐसे कई आन्दोलन – सामाजिक एवं राजनीतिक – जिनको आम जनता से सहर्ष समर्थन प्राप्त हुआ. यह ही कारण है कि हम जयप्रकाश नारायण एवं अन्नाजी जैसे समाजसुधारकों को सहज लोकनायक स्वीकार कर लेते हैं परन्तु नक्सलवाद जैसे हिंसक आन्दोलनों से कतराते हैं. 

अरविन्द केजरीवाल द्वारा संचालित आ.आ.प इस परंपरा को न केवल आगे बढ़ा रही है बल्कि राजनीतिक आचरण में नए आयाम भी स्थापित कर रही है, जो समय की मांग भी थी. लकीर से हटकर यह दल वोट बैंक राजनीति से परहेज़ करके धर्म, जाति एवं भाषा पर आधारित हथकंडों से अपने आप को दूर रख रही है. हालाँकि इसने भारत माता की जय का नारा अपनाया है परन्तु अंधराष्ट्रीयता के पास भी नहीं फटका. इसका वामपंथी झुकाव समाज में समतावाद के प्रचलन को बढ़ावा दे सकता है जो कि एक रचनात्मक कदम होगा.

आ.आ.प का उदय हमारी शासन प्रणाली में बढ़ रही बुराइयों का स्वाभाविक उत्तर है. कुछ विशेषज्ञ इसे भारत की आज़ादी की दूसरी लड़ाई भी कहते हैं. यह संघर्ष उन नवीन सामंतों से स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए हैं जिन्होंने देश के सभी संसाधनों और सम्पदा पर कब्ज़ा जमा लिया है और आम आदमी के लिए विकास के अवसरों पर बाधाएं उत्पन्न कर दी हैं. हमारी पुलिस में रक्षकों की अपेक्षा भक्षकों का अधिक बोलबाला है और इनको हमारे नेताओं का पूरा संरक्षण प्राप्त है. और हमारी नौकरशाही ने राजनीतिज्ञों के साथ मिलकर देश को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. अतः आ.आ.प के उदय के लिए समय अनुकूल है. इसे हम अपनी लोकतान्त्रिक प्रवृती का कमाल ही कहेंगे कि दिल्ली वासियों ने इन लुटेरों से पीछा छुड़ाने के लिए चुनावों का इस्तेमाल किया. उनको बाहर फ़ेंक कर ऐसे राजनीतिक दल को मौका दिया है जो एक पारदर्शी एवं ईमानदार व्यवस्था स्थापित करने का दम भरता है. 

परन्तु हमें यह समझना होगा कि आ.आ.प का आगमन नवीन और क्रांतिकारी न होकर एक परिवर्तनशील घटनाक्रम का अगला चरण मात्र है. यह दल हमारी पारंपरिक लोकतान्त्रिक गतिविधियों को नयी ऊंचाई पर ले जा रहा है – जिसको बहुत पहले हो जाना चाहिए था. स्वतन्त्र भारत में सामंतवाद और वंशपरम्परावाद धीरे धीरे किसी भयावह विषाणु की तरह हमारी राजव्यवस्था में फैलते चले गए और समस्त राजतंत्र पर कब्ज़ा कर उसको निर्जीव बनाने में लग गए. हर सरकारी संस्था को भ्रष्टाचार ने जकड़ लिया. नेताओं और नौकरशाहों में सुधार के प्रति उदासीनता नहीं बल्कि प्रतिरोध इतना बढ़ गया कि अनेक आयोगों के सुधार को लेकर सुझाव पता नहीं कितने दफ्तरों की फाइलों में दबकर रह गए. फलतः आम आदमी धीरे धीरे न केवल सरकार की निर्णयन प्रक्रिया से बल्कि सरकार से भी अन्यसंक्रांत होने लगा जो कि एक खतरनाक अवस्था हो सकती है. 

परन्तु भारत को ऐसी परम्पराओं का वरदान है जो संकट के समय काम आती हैं. जब अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता आन्दोलन को सफल बनाने के लिए सारे भारत को भावनात्मक रूप से एक सूत्र में बांधने की अति आवश्यकता पड़ी तो गांधीजी का आगमन हुआ. स्वाधीनता संग्राम को अहिंसा और असहयोग के रूप में ऐसे हथियार मिल गए जिनसे विदेशी शासकों का पहले कभी पाला नहीं पड़ा था. और यह भी अच्छी तरह से प्रलेखित है कि गांधीजी आन्दोलन को उच्चतम नैतिक और आध्यात्मिक स्तर पर ले गए जिसके समक्ष विदेशी शासक अपने आप को निरस्त्र पाने लगे. दूसरी तरफ यह रणनीती आम जनता के स्वभाव के अनुरूप भी थी क्योंकि लम्बे समय तक हिंसक आन्दोलन उसको पसंद नहीं. चाहे कुछ समय के लिए जनता वीरतापूर्ण हिंसा से प्रभावित हो जाये लेकिन स्वाभावतः वह शांतिप्रिय है. वैसे भी भारत में जो आदर एक संत को मिलता है वह किसी अन्य को नहीं. यही कारण है कि भगत सिंह और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस सरीखों को सराहा तो जाता है परन्तु वह गांधीजी के बताये पथ पर श्रद्धापूर्वक चल पड़ती है. फलतः वीर स्वतंत्रता सेनानियों का आदर तो हुआ परन्तु एक अज्ञात सत्याग्रही में विशाल जनसमूहों को प्रेरित करने शक्ती कहीं अधिक रही. आज़ादी के बाद आचार्य विनोबा भावे का सर्वोदय आन्दोलन शांतिपूर्वक सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए उत्कृष्ट साँचा माना गया. उनकी भूदान और ग्रामदान योजनायें भूमिहीनों को भूमि तथा गाँवों में संपत्ति के अधिकार दिलवाने के लिए चलाई गयीं. माना कि १९५० और ६० के दशकों में चलाये गए यह आन्दोलन संपूर्णतः सफल नहीं हुए थे. परन्तु यह तो कहा जा सकता कि नक्सलवाद की हिंसक कोशिशों से तो कहीं अधिक सफल रहे. 

हम सब यह मानते हैं कि १९७५ की इमरजेंसी (आपातकाल शासन) भारत के लोकतंत्र के लिए एक अंधकारपूर्ण समय था. और यह भी सच है कि इसके कारण जो इंदिरा गांधी बांगलादेश विजय के बाद जनता द्वारा दुर्गा के रूप में पूज्य हो गयीं थीं, उन्हीको इमरजेंसी के बाद १९७७ के चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा था. आम जनता ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वह तानाशाही प्रवृत्ति को न तो सहन करेगी और न ही क्षमा. वह चुनाव देश की लोकतान्त्रिक साख बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण चरण माने जाते हैं. मतदाताओं ने अनेक बार यह साबित कर दिया है कि उनको कोई भी राजनीतिक दल मूक मवेशी मानने की गलती न करे. यही कारण है कि १९७७ के आम चुनावों में विजयी जनता पार्टी १९८० में बुरी तरह से परारस्त हुयी. यदि १९८४ में राजीव गाँधी को भारी बहुमत से जिताया गया तो अगले ही चुनावों में उनको निकाल बाहर भी किया गया. 

हमें आ.आ.प के उदय को इस सन्दर्भ में देखना है. इस दल ने साफ़-सुथरी, पारदर्शी और अनुक्रियाशील सरकार बनाने का वायदा किया है. लेकिन इसके संचालकों को यह ध्यान में रखना होगा कि उनका आदर्शवादी सुधार लाने का उत्साह चंद वर्षों में ही लुप्त न हो जाए. आतंरिक संशोधक एवं सुधारक तंत्र के अभाव में दल के अन्दर अति आत्मतुष्टी छा सकती है और धीरे धीरे इसमें वह सब बुराईयाँ उत्पन्न हो सकती हैं जिनके विरुद्ध इस समय आ.आ.प आन्दोलन कर रहा है. स्वाभाविक है कि इससे उत्पन्न कुंठाओं से बचना ही होगा. यदि दल के संचालक इस प्रकार की गलन को रोकने में सफल हो जाते हैं तो इसमें कोई शंका नहीं रह जाती कि वह देश के अन्य राजनीतिक दलों के लिए अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर सकेंगे. और ऐसा होना देश के लिए अत्यावश्यक हो गया है. क्या ऐसा होगा? यह तो समय बताएगा.

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