अन्ना हज़ारे के अनशन का पूरा होना एक अजीबोगरीब स्थिती पैदा कर रहा. एक तरफ उनके समर्थक विजय का डंका पीट रहे हैं तो दूसरी तरफ विरोधी पक्ष इसे उनकी हार कह रहे हैं. देखा जाये तो न यह अन्ना की हार है और ना ही जीत. क्योंकि केवल जन लोकपाल बिल पर संसद में चर्चा या बहस होना काफी नहीं है. उसमें कई फेरबदल हो सकते हैं और शायद संशोधनों की भी आवश्यकता पड़े. यदि यह बिल कानून की शक्ल में पारित हो भी जाता है तो इसे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में पहला कदम मात्र मानना होगा. अभी तक भ्रष्टाचार पर होने वाला हर वार उसकी मात्रा में इज़ाफा ही करता आ रहा है, रक्तबीज की तरह. और वार भी कैसा?
देखा जाये तो पिछले करीब पचास वर्षों में भ्रष्टाचार को जितना बढ़ावा सरकार के उच्च पद पर आसीन अधिकारीयों और राजनीतिज्ञों से मिला है उतना संभवतः उसके विरुद्ध उपक्रमों को नहीं मिला. याद आता है इंदिरा गांधी का भ्रष्टाचार को समस्त विश्व की समस्या कहकर उसके अस्तित्व को एक प्रकार का संरक्षण देना. इंदिरा गांधी के कार्यकाल से ही अनेक संवैधानिक प्रतिष्ठानों, प्रणालियों और परम्पराओं का हनन आरम्भ हो गया था. एमरजेंसी के दिनों में तो यह प्रक्रिया सर्वनाश का रूप ले चुकी थी जब हमारा संविधान केवल कागज़ के पन्नों तक ही सिमट कर रह गया था. संसद और न्यायपालिका जड़वत हो गयी थीं और मीडिया मूक हो गया था. आम आदमी के ऊपर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ कोई सुनवाई नहीं हो सकती थी तथा “न वकील, न अपील, न दलील” का आर्तनाद देश की गलियों में यतीम की तरह भटक कर रह गया था.
जेपी के अभियान ने सरकार का तख्ता तो पलट दिया परन्तु भ्रष्टाचार को न रोक सका, जो अब रक्तबीज बनकर हमारे समाज को ग्रस रहा है. हालत अब यह है कि शिशु गर्भ में ही भ्रष्टाचार के संस्कार प्राप्त कर लेता है. हम सब जानते हैं कि भारत में आज भी गरीब और निम्न मध्यवर्ग के परिवार निजी अस्पतालों की सेवाओं का खर्चा नहीं उठा सकते. उन्हें सरकारी अस्पतालों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. लेकिन प्रसव के लिए भी जब तक रिश्वत न दी जाए सरकारी अस्पताल की सेवा प्राप्त नहीं हो पाती. हर रोज़ खबरें पढ़ने और सुनने को मिलती हैं कि फलां अस्पताल की सीड़ियों पर या फर्श पर ही किसी गरीब औरत ने शिशु को जन्म दे दिया! प्रसूति गृह तथा डाक्टरों द्वारा निरीक्षण एवं देखभाल तो केवल समर्थ लोग ही प्राप्त कर सकते हैं न. आगे चलकर उस ही बच्चे को स्कूल में दाखिल करने के लिए या तो रिश्वत या फिर सिफारिश ज़रूरी हो जाती है. फलतः जन्म से लेकर वयस्क होने तक जिस बच्चे ने केवल रिश्वतखोरी का ही सामना किया हो तो उसके संस्कार कैसे होंगे, क्या उसके जीवन मूल्य कुंठित न होंगे?
इसीलिये मैं दंग रह गया जब भारत के युवक-युवतियां भारी संख्या में अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में शामिल हुए और अंत तक डटे रहे. यह युवा जनता गाँवों से, छोटे और बड़े शहरों से तथा देश के हर वर्ग तथा समुदाय से थे, और हैं! अब जब कि संसद में जन लोकपाल बिल पर बहस और संभवतः मतदान होने को है तो अन्य भ्रष्टाचार विरोधी और सुधारवादी बिल जैसे कि १९९९ से ठंडे बस्ते में पड़ा वह बिल, जिसमे भ्रष्ट व्यक्ति की संपत्ति ज़ब्त करने का प्रावधान है, को भी पारित करवाने का भरसक प्रयत्न करना होगा. साथ ही देश की संसद, न्यायपालिका तथा सरकार के बीच में बिगडे संतुलन को पुनर्स्थापित करना होगा ताकि न्यायपालिका को मजबूर होकर सरकार और संसद की भूमिकाएं फिर कभी न निभानी पड़े.
आवश्यकता है ऐसी व्यवस्था की जिसमे हमारे अनेक संवैधानिक प्रतिष्ठान, प्रणालियाँ तथा परम्पराएं पुनर्जीवित हो सकें और नए युग के भारत के सपनों को साकार करने के लिए उनका नवनिर्माण भी हो सके. ऐसा करने के लिए हमारी संसद को काली का तथा सरकार को स्कन्द का रूप अपनाना होगा. तभी हो सकेगा भ्रष्टाचार रुपी रक्तबीज का संहार!
रणदीप वडेरा
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