Saturday, January 7, 2012


सरकार, शासन प्रणाली और समाज

रणदीप वडेरा 

राजनीती वास्तव में क्या है? सिर्फ तिकड़मबाजी और षड्यंत्र या फिर कुछ महत्वपूर्णहालांकि राजनीती शब्द का इस्तेमाल आजकल अरुचिकर और झूठ पर आधारित गतिविधियों के लिए किया जाता है इस्तक वास्तविक अर्थ काफी विशाल है. सरकार चलाने की कला एवं विज्ञान, एक राजनीतिक दल का संचालन, राजनीतिक कारोबार और विचार, नीति निर्माण और प्रशासन के अनेक नगर-विषयक पक्ष "राजनीती" की परिभाषा को सम्पूर्ण करते हैं. 

यदी हम आज़ादी के बाद बनी सरकारों की 'उपलब्धियों' पर नज़र डालें तो हमें अचम्भा होता है कि भारत इन सब को कैसे झेल गया. सरकार के नाम पर चहुँ-मुखी कुप्रशासन ही हुआ है. हमारे क़ानून और उसको लागू करने वाली संस्थाएं आज भी औपनिवेशिक ढर्रे पर चल रहे हैं. हमारे सत्ताधारी अत्याचार और भ्रष्टाचार में बड़ी आसानी से लीन हो जाते हैं.  प्रीतीश नंदी, जो कि एक भूतपूर्व सांसद हैं, अपनी हाल ही की ब्लॉग पोस्ट, में कहते हैं, "आक लोकसभा के ५४३ सांसदों में से ३१५ करोडपती हैं... पिछली लोकसभा के मुकाबले में एक औसत लोकसभा सांसद की परिसम्पत्ती १.८६ करोड़ से बढ़कर ५.३३ करोड़ हो गयी है. यानी कि २००% अधिक. और, जैसा कि हम जानते हैं, सभी सांसद अपनी सम्पत्ती का पूरा लेखाजोखा हमेशा नहीं देते, इसमे से अधिकतर उस रंग में होती है जिसे हमारा कर-काननों पहचान नहीं पाता... सांसद होने पर कुछ ऐसी प्रतिरक्षा मिल जाती है जिसका ज़िक्र हम सार्वजनिक मंच पर नहीं कर सकते...अगर आप सोचते हो कि शासक दल का सदस्य होने में फ़ायदा है तो आप बिलकुल ठीक सोचते हो: कांग्रेस के १० सांसदों मे से ७ करोडपती हैं. बीजेपी के ५ हैं. शिरोमणि अकाली दल, टीआरएस और जेडी (सेकुलर) जैसे छोटे दलों  के सभी सांसद करोडपती हैं जबकि एनसीपी, डी एम् के, आर एल डी, बी एस पी, शिव सेना, नेशनल कांफेरेंस  और समाजवादी पार्टी में और अधिक करोडपती हैं. क्या पदासीन होने पर सांसद अधिक संपन्न हो जाते हैं? बिलकुल. आंकडे दिखाते हैं कि जिन ३०४ सांसदों ने २००४ में चुनाव लड़े थे और फिर पिछले साल चुनाव लड़े वह औसतन ३००% से अधिक अमीर हो चुके थे. और हाँ, हम यहाँ केवल प्रकटित परिसंपत्तियों की बात कर रहे हैं."

और यह वह विलक्षण व्यक्ति हैं जिनको हमने लोकपाल बिल पारित करने का जिम्मा सौंपा है! कितने अवास्तविक रूप से आशावादी हैं हमारे मतदाता. या फिर, शायद, हमारे निर्वाचित नुमाईन्दे हमारे समाज द्वारा पालन हो रहे मूल्यों की तरफ इशारा करते हैं. एक दिन जब मैं अपने पास के पार्क में घूम रहा था तो मैने एक युवक को अपने मित्रों से यह कहते सुना, "मेरे पिता को यह कांट्रेक्ट मिल जायेगा... उन्होने ५ लाख पेशगी दी है और पेमेंट मिलने पर तगड़ा कमीशन देने का वादा भी किया..." क्या उसके मित्रों के मन में उसकी भ्रष्ट सोच पर घृणा उत्पन्न हुई? नहीं, वो तो काफी व्यवहारिक लोग हैं. उन्हें मालूम है कि व्यवस्था कैसे चलती है. उन्हें मालूम है कि इमानदार व्यक्ती अक्सर अभिशंसित हो जाता है, या फिर कम से कम इस्तमाल करके फेंक दिया जाता है जैसा कि अब अन्ना हज़ारे के साथ हो रहा दीखता है. मैं यह कहने की जुर्रत भी करता हूँ कि संभवतः अन्ना का वही हषर हो सकता है जो कि जेपी और गांधीजी का हुआ था ; और असामयिक भी. क्यों? क्योंकि कौन देश के लिए अपना जोर मारना चाहता है? ऐसा देश जहां से हमारे युवक भागने को तत्पर रहते हैं. हमारे आई आई टी तथा आई आई एम् के सनातक, ऊंची या नीची दर का प्रशिक्षण प्राप्त युवक, सबका एक ही सपना है - गोरी चमड़ी वालों की गुलामी करना. हाँ कुछ समय के लिए उनमे देशभक्ति जाग उठती है जब उनको उनके सपनों के देशों से जूते मारकर बाहर खदेड़ा जाता है. वह ठिठक कर कभी नहीं सोचते की यदि मैं ही अपने भारतीय होने पैर सम्मान नहीं करूंगा तो ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका या यूके के लोग क्योंकर मुझे आदर देंगे?

मुद्दे पर वापिस आते हुए, क्या कानून पारित करने से भ्रष्टाचार मिटाया जा सकता है? स्पष्टतः नहीं. चलो हम उन कानूनों पर एक नज़र डालते हैं जो लागू हो चुके हैं. गर्भ का चिकित्सीय (संशोधन) अधिनियम, २००२, जो १९७१ कानून का रूपांतरण है, का उद्देश्य बलात्कार का शिकार हुई महिलाओं, अस्वस्थ शिशुओं को जन्म देने वाली माताओं को राहत पहुंचाना, तथा विकराल रूप से विकलांग  शिशुओं के जन्म की रोकथाम करना है. इसके अलावा, गर्भनिरोधक उपायों की विफलता के कारण अनचाही संतान को रोकने के लिए गर्भपात का भी इस कानून में प्रावधान है. अतः अम्निओसेन्तेसिस  और अल्ट्रासाऊंड  स्कैन्निंग द्वारा गर्भ में पल रहे शिशु का निरीक्षण करने की अनुमती दी गयी. परन्तु, दुर्भाग्यवश, इन तकनीको का इस्तेमाल शिशु के लिंग का पता लगाने के लिए किया जा रहा जो की कानून का दुरउपयोग है. फलतः लड़कियों के बचने  के लाली पड़ गए हैं क्योंकी अब उनकी ह्त्या गर्भ में करना आसान हो गया है. 

दूसरे, बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, २००६, २१ वर्ष से कम उम्र के लड़कों और १८ वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के विवाह को गैरकानूनी करार करता है. परन्तु देश भर में लोग इस कानून का उल्लंघन मनमानी ढंग से कर रहे हैं: राजस्थान उल्लंघनकर्ताओं की तालिका में सर्वोपरि है, वहां विवाह के समय लड़कियों की औसत उम्र १६.६ वर्ष है, इसके ठीक पीछे बिहार १७.२ वर्ष की औसत उम्र से दूसरे स्थान पैर है, और मध्य प्रदेश तीसरे स्थान पर (१७ वर्ष)! हर साल लगभग ९० मुकद्दमे दायर होते हैं लेकिन इक्का दुक्का में ही अपराध सिद्ध हो पाते हैं!

आज हमें नए कानूनों की इतनी ज़रुरत नहीं है जितनी कि एक ऐसी नवीन लोकाचार की जो क़ानून विधानों पर कम निर्भर होगा और ऐसी सामाजिक परंपरा का पालन करेगा जिससे नागरिकों के मन में कानून व्यवस्था के प्रति श्रद्धा और देश की भलाई के प्रती सकारात्मक भाव उत्पन्न हो. ऐसा नहीं है कि देश में अच्छे लोग नहीं हैं. परन्तु बुरे लोगों की भाँती वह ऐसे शक्तिशाली संघ नहीं बना पाते जिनका राजतंत्र की कार्य पद्धती पर सकारात्मक प्रभाव पड़ सके. और अगर अन्ना हज़ारे जैसे लोग बिल्ली के गले में घंटी बंधने के लिए आगे आ भी जाते हैं तो कोई न कोई विभीषण पीठ में छुरा भोंक ही देता है. अतः चौकन्ना रहने की ज़रुरत बनी रहती है.

आम नागरिक को कुछ बातों पर ध्यान देने की ज़रुरत है: आप अपने एकमात्र अधिकार को क्यों ज़ाया जाने दे रहे हैं? देखिये आपकी गलत मतदान प्राथमिकताओं ने भारत के सर्वश्रेष्ठ लोकतान्त्रिक संस्था, पार्लिआमेंट, में ऐसे गुनाहगारों को प्रवेश दिलाया है जिनपर बलात्कार, क़त्ल आदि जैसे जघन्य अपराधों के लिए मुकद्दमे चल रहे हैं या आरोप-पात्र दाखिल हो चुके हैं. वक्त आ गया है कि आप अपनी वोट उम्मीदवार के चरित्र और उपलब्धियों पर गहन विचार करने के बाद ही डालें.  यह तो केवल शुरुआत के लिए है. प्रभाविक सरकार तभी बन पायेगी जब संसद में स्वस्थ और गुणकारी शासन प्रणाली के लिए सहायक माहौल पैदा हो सकेगा.

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