इस वर्ष की १६ दिसम्बर आकर चली गयी. २०१२ में इस दिन एक ऐसी भयावह घटना घटी थी जिसने न सिर्फ दिल्ली को बल्कि सारे देश को झकझोर कर रख दिया था. यहाँ सारी कथा सुनाने की आवश्यकता नहीं, केवल दामिनी या निर्भया मात्र कहने से समाज को दहलाने वाली वह दास्तान एक दु:स्वप्न की तरह मानसपटल पर चलचित्र सी छा जाती है. फलतः जनता का आक्रोश सड़कों पर, गली कूचों में और सत्ता के गलियारों में लावा बनकर फूट पड़ा. हमारे आमतौर पर उपेक्षाशील शासकों ने गज़ब की फुर्ती दिखाते हुए अनेक मोर्चों पर एक साथ कार्यवाही शुरू कर दी. एक सख्त कानून पारित किया गया. दामिनी के मुजरिमों को गिरफ्तार करके उनपर मुकदमा चलाया गया और उनको सज़ा भी सुना दी गयी.
उस अत्याचार की पहली वर्षगाँठ पर हमारे मीडिया में चर्चा-परिचर्चा की भरमार रही. देश विदेश में आम लोगों ने अपने अपने तरीके से श्रद्धांजली भी अर्पित की. किन्तु क्या इन सब गतिविधियों से देश की नारी और बालिका अधिक सुरक्षित हो सकी हैं? यह प्रश्न आवश्यक हो गया है क्योंकि खबरों के अनुसार पिछले १२ महीनों में बच्चों और महिलाओं के यौन शोषण तथा अन्य सदृश एवं सम्बंधित अत्याचार/अपराधों में कई गुणा बढ़ोतरी हुयी है. और यह दुष्कर्म शहरों, कस्बों और गांवों में तथा दफ्तरों, घरों, विद्यालयों और धर्मस्थलों में हो रहे हैं. मुजरिम किसी ख़ास सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक या राजनीतिक वर्ग या परत से सम्बन्ध नहीं रखते. अनेक धर्मगुरु, राजनीतिज्ञ, शिक्षक, अफ़सर, सम्पादक और न्यायाधीश गुंडों और अन्य समाज के कीड़ों के भाईचारे में शामिल हो गए प्रतीत होते हैं. सच में, किसको पता था कि बलात्कार में इतनी क्षमता होगी कि आदरणीय और जघन्य में समतलता ला सके?! इस क्षमता का अंदाज़ा लगाना भी असंभव होता अगर कुछ लोगों के कारनामे जगजाहिर नहीं हो जाते. इन व्यभिचारियों द्वारा पीड़ित भी समाज के विभिन्न वर्गों से सम्बन्ध रखते हैं. गृहणियां, मजदूर, भक्त, पत्रकार, वकील, विद्यार्थी, शिक्षक, वकील, डॉक्टर, नर्स तथा दफ्तरों में काम करने वाली महिलायें.
निर्भया के बाद कम से कम दो अन्य महिला पीड़ितों को लेकर मीडिया में काफी परिचर्चाएं हुईं. उनमे से एक पत्रकार और एक वकील है. इनपर अत्याचार करने वालों के नाम किसी भी टीवी शो की टीआरपी को कई गुणा बढ़ा सकते हैं. यदि पिछले कुछ महीनों में यह दो सेलिब्रिटी अपराध न हुए होते तो क्या इस वर्ष निर्भया काण्ड पर इतनी प्रबलता के साथ परिचर्चाएं होतीं? अगर इस प्रश्न को दूसरे सिरे से देखें तो अगर उस रात निर्भया सुरक्षित अपने हर पहुँच गयी होती और वह कुत्सित हादसा नहीं हुआ होता तो क्या आज तरुण तेजपाल और जस्टिस गांगुली पर मीडिया की टिप्पणियाँ इतनी तीखी होतीं? क्या हमारे समाचार चैनल लगातार इन मुद्दों को यूं हेडलाइंस बनाए रखते, और वो भी इतने दिनों तक? यह पूछना इस लिए आवश्यक हो जाता है कि न केवल पीड़ितों के भविष्य बल्की हमारे समाज की अन्तःश्चेतना पर भी इस समय प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है.
अभी तक सबका ध्यान गलियों और अन्य सार्वजानिक स्थानों में महिलाओं पर हो रहे यौन उत्पीड़न एवं बलात्कार आदि जुर्मों पर लगा हुआ था. यह अपराध आसानी से शीघ्र ही नज़रों में आ जाते हैं. किन्तु कुलीन वर्गों में, पांच सितारा होटलों, घरों तथा दफ्तरों में हो रहे अपराधों पर मीडिया की नज़र आसानी से नहीं पड़ती. और, अपराधी न केवल सशक्त और रसूखवाले होते हैं बल्कि उनके काले कारनामों का ना तो कोई चश्मदीद गवाह होता है और न ही कोई सबूत. अगर गवाह होता भी है तो वह चुप रहने में ही अपनी भलाई समझता है. पुलिस भी ऐसे रसूखवाले अपराधियों के खिलाफ कार्यवाही करने से हिचकिचाती है.
अगर अब भी हमारे समाज में यौन संबंधी अपराध हो रहे हैं तो कहीं न कहीं कोइ कमी या ढील तो है. आइये कुछ ऐसे अपराधों को याद करें जो सामाजिक याददाश्त से परे हो चुके हैं. २० अक्टूबर २०११ को मुंबई में कीनन संतोस और रुबेन फर्नांडेज़ नामक दो युवक अपनी महिला मित्रों को बचाने की कोशिश में भरे बाज़ार में गुंडों द्वारा मार दिए गए. अक्टूबर २००५ में बैंगलोर में एक टैक्सी ड्राईवर नें बीपीओ में काम करेने वाली युवती का बलात्कार करके उसकी ह्त्या कर दी. २००७ में पुणे की एक बीपीओ महिला कार्यकर्ता के साथ भी ऐसा ही हुआ. अगस्त २०१३ में मुंबई में एक महिला फोटो जर्नलिस्ट के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ. आज इन अपराधों की याद समाज के मानसपटल पर धुंधली सी होकर रह गयी है. सम्भवतः इसका कारण यह है कि आये दिन महिलाओं पर हो रहे यौन अत्याचार इतने अधिक हो गए हैं कि उनकी गिनती कर पाना भी मुश्किल हो गया है. आये दिन हम क़ानून के रखवालों को भी इस जघन्य अपराध में संलिप्त पाते हैं. उदाहरणतः, २००५ में हुआ मुंबई में मरीन ड्राइव केस जिसमें एक पुलिस वाले ने एक १६-१७ वर्ष की बालिका के साथ पुलिस चौकी में बलात्कार किया. इंडियन एक्सप्रेस के चंडीगढ़ संस्करण में २० दिसम्बर २०१३ की एक खबर के अनुसार पांच पुलिस वालों ने एक गरीब कन्या का सामूहिक बलात्कार किया. यह सब हो रहा है निर्भया कानून के पारित हो जाने के बाद! और यह सब उस देश में हो रहा है जहां देवी पूजन की प्रथा सर्वव्यापी एवं सशक्त है. हर वर्ष नवरात्रों में हम कंजक पूजन करते हैं. और उसी कंजक के उत्पीड़न की खबरें हम प्रतिदिन पढ़ते और सुनते हैं. इसको हम पाखण्ड कहें या मिथ्याचार, है तो यह हम सबके माथे पर गहन कलंक ही, क्योंकि जिस देश में कंजक और गौरी पूजन होते हैं वही देश विश्व की बलात्कार की महानगरी का घर भी बन गया है. इस कुटिलता का एक दुष्परिणाम यह भी है कि नारी को देवी का दर्जा देकर हम पवित्रता की सारी जिम्मेदारी उस पर दाल देते हैं और पुरुष सारे दोषों एवं उत्तरदायित्व से साफ़ बच जाता है.
वास्तव में स्त्री के प्रति सम्मान की हमारी परम्परा अब एक विद्रूपिका मात्र बनकर रह गयी है. जब भी कोई बलात्कार होता है तो समाज के ठेकेदार हमें यह प्रवचन सुनाने लगते हैं की भारत में स्त्री को उच्चतम पदवी दी गयी है. उसको लक्ष्मी, दुर्गा एवं सरस्वती के रूप में पूजा जाता है. परन्तु यह प्रवचन हमारे मूलभूत दृष्टीकोन को सुधारने में असफल रहे हैं क्योंकि प्रवचनकर्ता को भी आज शक की नज़र से देखा जाने लगा है. और जहां तक मीडिया में परिचार्चओं का प्रश्न है – वहां केवल और कड़े क़ानून बनाने की मांग करके पल्ला झाड़ लिया जाता है. क्या कभी आपने टीवी पर किसी सरकारी प्रवक्ता या अन्य टिप्पणीकर्ता को यह बताते सुना है कि क़ानून को लागू कैसे किया जाना चाहिए? इसको लागू करने के लिए प्रणाली को कैसे स्थापित किया जाएगा. बस कानून बना दो और सरकार का उत्तरदायित्व समाप्त! कोई पूछने वाला नहीं, कोई जवाबदेही नहीं. क्यों नहीं बताया जाता कि कब हमारी पुलिस सामंतवादी मानसिकता से उभरने दी जायेगी? कब हमारी पुलिस और न्यायतंत्र में वह सब सुधार लागू किये जायेंगे जिनकी अनेकानेक आयोगों ने समय समय पर अनुशंसा की है? क्या हमारे राजतन्त्र एवं समस्त समाज में यह माई-बाप की मानसिकता कभी समाप्त होगी?
अक्सर, जब भी कड़े क़ानून बनाने या उनको सख्ती से लागू करने की बात होती है तो अनेक लोग उस कानून के दुरूपयोग की शंका जताते हैं. उनका डर जायज़ तो है पर ऐसा नहीं जिसका हल नहीं हो सकता. अगर पुलिस अपना काम बिना डर, दबाव या पक्षपात से करे और न्यायतंत्र स्वस्थ एवं निष्पक्ष तरीके से कार्य करे तो किसी भी नागरिक के साथ अन्याय होने की संभावना ना के बराबर रह जाती है.
किन्तु क्या कभी ऐसा हो सकेगा? खैर, जब तक सांस तब तक आस!
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