एक बार कैनेडियन टीवी पत्रकार लैरी ज़ोल्फ़ ने अपने देश के राजनीतिज्ञों के बारे में कहा था, “सोश्लिस्टों का लिब्रलों के साथ हमबिस्तर होना शार्क मछली के साथ मौखिक यौन-क्रिया करने के सामान है.” यह टिप्पणी आ.आ.प. एवं कांग्रेस के बीच वर्तमान संबंधों पर भी लागू होती है... क्या दृश्य था – नेता और अभिनेता एक साथ गुजरात के उत्तरायण महोत्सव पर पतंग उड़ा रहे हैं और वह भी मंद मंद मुस्कुराते हुए – मानो वह बचपन से ही एक साथ ऐसा करते आ रहे हों! या फिर पतंगबाजी द्वारा दोनों यह पता करने की कोशिश में थे कि आखिर राजनीतिक हवाएं चल किस दिशा में रही हैं.
एक समय था जब मुलायम सिंह यादव को मुल्ला या मौलाना कहकर पुकारा जाने लगा था. इसका कारण था बाबरी मस्जिद कांड से पहले, उसके दौरान और उसके बाद भी, उनका रवैय्या और नीतियां. उनकी समाजवादी पार्टी अन्य पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करने का और लोहिया की विचारधारा पालन करने का दम भी भरती है. आज वही मुलायम सिंह और उनके दल के प्रमुख नवाबी शान-ओ-शौकत के साथ उस समय फ़िल्मी सितारों के लटकों-झटकों से अपना दिल बहला रहे थे जब उनके प्रदेश की जनता मुज़फ्फरनगर दंगों से त्रस्त होकर त्राही त्राही कर रही थी. क्या कहें ऐसे निर्वाचित प्रतिनिधियों को जो सत्ता पाते ही अपने मतदाताओं को भूल जाते हैं? पर केवल नेता ही क्यों (इनकी अंतरात्मा तो देश की आज़ादी के तुरंत बाद मर गयी थी), उन लोगो के बारे में क्या कहें जिनको हम विकसित संवेदनशीलता का निधान मानते हैं – हमारे कुलीन-संभ्रांत वर्ग और कलाकार? वो भी तो थे वहां उस चकाचौंध कर देने वाली रंगरलियों में जो इंद्रसभा को भी मात दे रही थीं. हम इस कथनी और करनी के बीच की खाई को बेशर्मी से आयोजित आडम्बर न कहें तो क्या कहें? हैरानी की बात यह थी कि इनके प्रवक्ता जब टेलेविज़न पर आये तो उनके चेहरों पर न तो कोई ग्लानी का निशान था और न ही शर्म की लालिमा. अच्छा होता कि कम से कम किसी फ़िल्मी सितारे से वह ब्लश-ऑन लगवाकर टीवी स्टूडियो में आते. क्या यह अनियंत्रित पतन देश की लोकतान्त्रिक मर्यादाओं को सदा के लिए नष्ट कर देगा, या फिर समय रहते कोई सकारात्मक शक्ती देश की व्यवस्था एवं संस्थाओं का उद्धार करने में सफल हो सकेगी? सामंतवाद और लोकतंत्र के बीच का यह संग्राम कुछ ज्यादा ही समय ले रहा है.
पिछले हफ्ते आ.आ.प. को कुछ सच्चाइयों का सामना करना पड़ा. अरविन्द केजरीवाल समझ गए होंगे कि जनता की नज़रों में प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए सिर्फ नेक इरादे काफी नहीं हैं. उन्हें उन इरादों को ठोस रूप देने के लिए न केवल भरसक कोशिश करनी होगी बल्कि समझबूझ का परिचय भी देना होगा. मुख्यमंत्री द्वारा पहला जनता दरबार – जिसमे लोगों की शिकायतों की सुनवाई होनी थी – अराजकता के माहौल में रद्द हो गया और मुख्यमंत्री अपनी मंडली के साथ इमारत की छत पर चढ़े दिखाई दिए. स्पष्ट था कि इस कोशिश में दिमाग कम और दिल ज़्यादा इस्तेमाल हुआ. खैर, केजरीवाल समझदार हैं और कोई न कोई ऐसी युक्ती निकाल ही लेंगे जिससे उनकी सरकार लोगों से करे वायदे पूरे कर सके. लेकिन कुछ और भी ऐसी बातें हुईं जिनसे लगा कि अभी सरकार चलाने का तौर तरीका सीखना बाकी है. दिल्ली के कानून मंत्री की पुलिस अफ़सर से झड़प और उनका तथा राखी बिरला का स्वयं ही कानून लागू करने के प्रयत्न सबके लिए काफी कठिनाईयां पैदा कर सकते हैं. अब आ.आ.प. मंत्रिमंडल भूख हड़ताल पर जाने की बात कर रहा है. अगर ऐसा हुआ तो यह देश की राजनीति में एक अनोखी पहल होगी. वैसे भी आ.आ.प. सरकार अपने अस्तित्व के लिए कांग्रेस पर निर्भर है. एक बार कैनेडियन टीवी पत्रकार लैरी ज़ोल्फ़ ने अपने देश के राजनीतिज्ञों के बारे में कहा था, “सोश्लिस्टों का लिब्रलों के साथ हमबिस्तर होना शार्क मछली के साथ मौखिक यौन-क्रिया करने के सामान है.” यह सादृश्य आ.आ.प. और कांग्रेस के वर्तमान संबंधों पर ठीक बैठता है.
आ.आ.प. मंत्रियों का बिना किसी अनुभव या प्रशिक्षण के पुलिसकर्मी की भूमिका निभाने की कोशिश को अगर हम नज़रंदाज़ कर भी दें तो बिन्नी बम का क्या करें? सब जानते हैं कि ऐसे नेता किसी ना किसी राजनीतिक जुगाड़ में लगे रहते हैं. आ.आ.प की छवि मलिन करने की ऐसी कोशिशें जितनी जल्द रोक दी जायें उतना अच्छा. साथ ही पार्टी के नेताओं को यह समझ लेना होगा कि अब वह किसो को भी पार्टी में शामिल करने से पहले अच्छी तरह सोच-विचार करें. नहीं तो पता नहीं ऐसे कितने और बिन्नी कल पार्टी की प्रगति के पथ में रुकावटें पैदा कर सकते हैं. आदर्शवाद के बल पर चल रहे दल को यह समझना होगा कि यथार्थ में दुनिया इतनी आदर्श नहीं है. लेकिन ऐसा केवल आ.आ.प. के साथ ही नहीं हो रहा है. वक्रोक्तियों और आरोपों के इस मौसम में पूर्व गृह सचिव आर.के. सिंह ने भी अपना तीर चला ही दिया जब उन्होंने गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे पर ‘डी’ कम्पनी के एक व्यक्ती की मदद करने का आरोप लगाया. स्पष्टतः शिंदे साहब को यह पसंद नहीं आया होगा.
केसरिया परिवार की महान आशा नरेन्द्र मोदी – जिन्होंने पिछले साल उनको भेंट की गयी टोपी (जिसको अरबी में तकिया भी कहते हैं और नमाज़ के वक़्त पहनी जाती है) यह कहकर अस्वीकार कर दी थी कि वह अल्पसंखकों के तुष्टीकरण के विरुद्ध हैं – अचानक वैसी ही टोपी पहने दीखे (जैसा टीवी चैनलों पर उनकी क्षणिक तस्वीरों से स्पष्ट था) और वो भी उस सलमान खान की सोहबत में जिनके ऊपर न जाने उन्होंने कितने ताने कसे थे और निंदा भी की थी. क्या दृश्य था – नेता और अभिनेता एक साथ गुजरात के उत्तरायण महोत्सव पर पतंग उड़ा रहे हैं और वह भी मंद मंद मुस्कुराते हुए – मानो वह बचपन से ही एक साथ ऐसा करते आ रहे हों! या फिर पतंगबाजी द्वारा दोनों यह पता करने की कोशिश में थे कि आखिर राजनीतिक हवाएं चल किस दिशा में रही हैं. अगर नरेन्द्रभाई अल्पसंख्यकों को इस तरह कोई सन्देश भेजना चाहते थे तो भा.जा.पा में हुसैन और नकवी सरीखे हैं जिनका सहारा लिया जा सकता था. या फिर उनको विश्वसनीयता की फ़िक्र थी? कहीं ऐसा तो नहीं कि अब वो सुन्नी समुदाय की ओर पतंग बढ़ा रहे हैं? चुनावों के मौसम में कुछ भी हो सकता है. उदाहरणतः केजरीवाल और सिबल सरीखे कट्टर शत्रु भी आलिंगनबद्ध हो सकते हैं और वो भी मिलाद-उन-नबी के पावन त्यौहार के अवसर पर. पर यह आलिंगन बनावटीपन की हद तक स्नेहमय था. यह कोई नहीं भूला है कि कल तक यह दोनों महानुभाव एक दूसरे पर छींटाकशी का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते थे. खैर, उधर सलमानभाई भी उलट कुलांच मारने में माहिर दीखते हैं. कल तक इनको कांग्रेस समर्थक माना जाता था. आज यह न केवल छोटे सरदार के साथ मिलकर पतंगबाजी में लगे हुए हैं बल्कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री की तारीफों के पुल बांधने में भी संकोच नहीं कर रहे. संभवतः इस बाजीगरी के पीछे अपनी फिल्म का मनोरंजन टैक्स माफ़ करवाने की चाहत हो.
भारत का सबसे पुराना दल, कांग्रेस, अभी भी इस उहापोह में फंसा हुआ है कि २०१४ के आम चुनावों में राहुल गाँधी को किस तरह पेश किया जाये. फिलहाल तो उनको प्रधान मंत्री पद का प्रत्याशी बनाने से परहेज़ कर लिया है. लेकिन सब जानते हैं कि वह इस समय गांधी टोपी और खादी धारण करने वालों की एकमात्र आशा हैं. सोनिया गाँधी प्रधान मंत्री बन नहीं सकतीं और प्रियंका ने राजनीति में आने से अभी तक इन्कार ही किया है. एक बात और भी है. अब मोदी के साथ साथ उनको कुमार विशवास सरीखों की चुनौती का भी सामना करना है. क्या होगा अगर कांग्रेस इन चुनावों में बुरी तरह से पिट गयी? किसको बनाया जायेगा बलि का बकरा? हम जानते हैं कि जीत का सेहरा किसके सर पर बंधेगा. इस सारे हल्ले-गुल्ले में हम मनमोहन सिंह को भूल हे गए. वही मनमोहन सिंह जिनको कभी देश का उद्धारकर्ता भी माना जाता था. जिन्होंने अपनी पहली पारी में भारत को विश्व की प्रमुख शक्तियों में लाकर खड़ा कर दिया था. अब जब उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए तीसरी बार खड़े होने से इन्कार कर दिया है तो उन्होंने स्वयं भी चैन की सांस ली होगी. आखिर, भारतीय राजनीति की दलदल से बच निकलना हर किसी की बस की बात नहीं.
अब देखना यह है कि यह दलदल किसको गंवारा होता है.
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