Thursday, September 1, 2011

चीन के बढ़ते प्रभुत्व को रोकना होगा


 हाल ही में चीन ने युक्रेन से एक विमानवाहक युद्धपोत खरीदा है जिसे रूस में पूरी तरह से तैयार करवाकर अपनी जलसेना में शामिल करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. इस प्रक्रिया को तीन से छेह महीने लग सकते हैं, ऐसा जानकारों का मानना है. चीन का यह नवीनतम युद्धपोत भारत के दोनों विमानवाहक युद्धपोतों से बड़ा है. इसमे विभिन्न प्रकार के प्रक्षेपास्त्रों तथा अन्य सैन्य अस्त्र-शस्त्र एवं सामग्री के साथ साथ कम से कम तीन दर्जन लड़ाकू विमानों को तैनात किया जा सकता है. कहने की आवश्यकता नहीं है कि इसका भारत की रणनीती पर कैसा प्रभाव पड़ेगा. इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि रण दुन्दुभी बजाने का समय आ गया है. लेकिन इसे परिवर्तनकारी घटना मानकर भारत को कुछ कदम तो उठाने ही पड़ेंगे.


अब चीनी जलसेना की पहुँच केवल पूर्वी प्रशांत महासागर तक ही सीमित न रहकर हिंद महासागर तक हो गयी है. यह म्यांमार, श्रीलंका और पाकिस्तान में बंदरगाहों का निर्माण तो कर ही रहा है साथ ही बांगलादेश तथा हिंद महासागर के अन्य छोटे बड़े देशों के साथ भी सैन्य सम्बन्ध स्थापित कर रहा है. क्योंकि चीन की ऊर्जा ज़रूरतों का लगभग ६०% भाग जलमार्गों से होकर पहुंचता है तो हम ऐसा मान सकते हैं कि उसकी जलसेना का उद्देश्य केवल अपने मालवाहक जलपोतों की सुरक्षा है. लेकिन १९६२ के चीनी आक्रमण तक की गतिविधियों से हम इतना समझ चुके हैं कि हमारे पड़ोसी मुल्क की हर योजना में सैनिक उद्देश्यों भी शामिल रहते हैं.

अफ़सोस की बात यह है कि १९६२ की पराजय के बाद भी लगभग चार दशकों तक हमारी सारी रणनीती पाकिस्तान पर ही केन्द्रित रही. और फिर ऐसे बुद्धिजीवी तथा नीती विशारद भारत में उपजे जिनके अनुसार सेना पर खर्चा फ़िज़ूल माना जाने लगा. अतः भारत की सैन्य शक्ति काफी वर्षों तक बढ़ने के बजाये क्षीण होने लगी. इस दौरान चीन हमसे बहुत आगे निकल गया. आज हालत यह है कि चीन अमेरिका जैसी विश्व शक्ति से टक्कर लेने में समर्थ है और हम पाकिस्तान जैसे पिद्दी देश से उलझे हुए हैं. सुरक्षा के लिये सोवियत रूस पर निर्भरता ने हमारे रण नीतिज्ञों को अंधा एवं नकारा बना दिया. फलतः आज भी भारत के पास दीर्घावधिक रण नीती नहीं है. जहां तक जलसेना का सवाल है वोह अभी भी हिंद महासागर की प्रमुख शक्ति का ओहदा प्राप्त नहीं कर सकी.

सोवियत रूस के बिखरने के बाद भारत को जब असली वस्तुस्थिती का सामना करना पड़ा तो उसने अपने आप को अनेक चुनौतियों से घिरा पाया. एक तरफ तो चीन एक सैनिक महाशक्ति बनकर हमारी उत्तरी सरहदों के लिए ख़तरा बन गया तो दूसरी तरफ वह नेपाल, म्यांमार तथा पाकिस्तान में अपनी सैन्य उपस्थिती को बढ़ाने में संलग्न हो गया. फलतः यह सारे देश अब अपनी अधिकतर सैन्य सामग्री चीन से खरीदते हैं.  

भारत के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह कूटनीतिक, आर्थिक तथा सैनिक नीइतियों में सुधार लाये और न सिर्फ पड़ोसी देशों में बल्कि एशिया के अन्य देशों के साथ सम्बन्ध सुदृड़ कराय और चीन के बढ़ते प्रभुत्व को रोक लगाये. इस दिशा में अनेक कदम उठाए भी जा रहे हैं. हाल ही में राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल मोंगोलिया सौहार्द भ्रमण पर गयीं थीं. वहां अनेक समझौते हुए जो दोनों देशों के बीच सैनिक, आर्थिक तथा कूटनीतिक सम्बन्ध और भी सशक्त करेंगे. साथ ही मोंगोलिया को चीन की बढ़ती सैनिक गतिविधियों के विरुद्ध एक सशक्त पक्षधर भी मिल जाएगा. भारत को भी विश्व स्तर पर अपने कूटनीतिक प्रभुत्व को बढ़ाने में सहायता मिलेगी.

चीन के अड़ोस-पड़ोस में जापान, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेसिया, सिंगापोर आदि अनेक देश हैं जो भारत के साथ चीन के विरुद्ध हाथ मिलाने को तत्पर हैं. चीन महासागर में उसके बढ़ते प्रभुत्व को लेकर तथा सीमाएं निर्धारित करने में कम्पूचिया और वियतनाम काफी चिंतित हैं. इन सब परिस्थितियों का लाभ भारत उठा सकता है. साथ ही भारत को अपना सैन्यबल तेज़ी से बढ़ाना होगा. हाल ही में दो युद्धपोत हमारी नौसेना में शामिल हुए तो हैं परन्तु यह काफी नहीं है. आवश्यकता है कम से कम पांच विमानवाहक युद्धपोतों की जो पांच नौसैनिक बेड़ों का नेतृत्व करेंगे. इन बेड़ों में अनेक प्रकार के युद्धपोत होने चाहियें जो अनेक प्रकार के लड़ाकू विमानों, प्रक्षेपास्त्रों तथा अत्याधुनिक रडार और अन्य सैन्य सामग्री से लैस हों. थल और वायु सेनाओं की शक्ति में भी शीघ्रातिशीघ्र इज़ाफा होना आवश्यक हो गया है. वायु सेना को कम से कम दस अतिरिक्त लड़ाकू स्क्वाड्रनों की आवश्यकता है. थल सेना में तोपों और टैंकों की चिंताजनक कमी महसूस की जा रही है. इस बारे में सरकार तो जल्दी से जल्दी निर्णय लेने होंगे.

अंततः भारत को अमेरीका तथा अन्य यूरोपीय महाशक्तियों के साथ हाथ मिलाने में koyee झिजक नहीं होनी चाहिए. और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इज़राईल भी उस ही नौका में सवार है जिसमें हम हैं. 


रणदीप वडेरा

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